Thursday 29 September 2011

मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि

भ्रूण हत्या, पहला - भाग
आज कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ी समस्या है। हम मानते हैं कि हत्या होनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि जो जीवन दान है, वह हमारे द्वारा नहीं होता है, चाहे कीट का जीवन हो या पतंग का जीवन हो। यहां तक कि हम गेहूं, चावल भी स्वयं नहीं बना पाते हैं, हम केवल बीज डालते हैं, सींचते हैं, उसमें फूल स्वत: आता है, फल आता है। जो बनाता है, उसी को नष्ट करने का अधिकार है। रोटी हम बनाते हैं, बिल्ली आदि से उसकी रक्षा करते हैं, हम उसको खा जाते हैं या लोगों को खिला देते हैं। तीनों काम हुआ, उत्पादन, पालन और संहारण, इसलिए हम रोटी के स्वामी हैं। स्वामी को अधिकार है। मकान बनाया हमने, तो स्वामी उसका कोई दूसरा होगा क्या? इस संसार में एक भी ऐसा मनुष्य शरीर नहीं है, जो मनुष्य बनाता हो।

दु:ख क्यों होता है?

हर कोई अपनी संपत्ति बताए

भ्रष्टाचार को खत्म करना है, उसके खिलाफ आंदोलन करना है, तो आंदोलन करने वालों को सबसे पहले अपनी संपत्ति बतानी चाहिए। संपत्ति कितनी है, कैसे बढ़ी, कितनी बढ़ी है, कहां बढ़ी। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है, यह तरीका सही है। शरीर अचानक बढ़ जाता है, तो डॉक्टर पता लगाते हैं कि शरीर क्यों बढ़ा है, शक्ति बढ़ गई है या कोई और कारण है। उसके लिए डॉक्टर जांच करते हैं। जांच मेरी भी होनी चाहिए, पहले साइकिल भी नहीं थी, किन्तु बाद में पैसा कहां से आया, श्रीमठ में मार्बल, ग्रेनाइट लगने लगा। देश में हर आदमी को अपनी आय बतानी चाहिए। छोटा महंत भी बताए, सेठ भी बताए, रामानंदाचार्य भी बताएं, रामदेव जी को भी बतलाने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं, तो शंका के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। वैसे भी संन्यासी का जीवन खुला होता है, कुछ भी छिपा नहीं होता। जैसे संपत्ति आई है, आप डंके की चोट पर बताइए, कहां से आई, गलत आई है, तो आप सुधार कीजिए।
दु:ख क्यों होता है?

Wednesday 28 September 2011

कैसे दूर होगा भ्रष्टाचार?

सीबीआई जांच या कुछ लोगों को जेल भेजने से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा। यह भावना आनी चाहिए कि भ्रष्टाचार नहीं करके भी हम बड़े हो सकते हैं। जब तक यह विवेक जागृत नहीं होगा कि भ्रष्टाचार करने के बाद क्या कुफल होगा, तब तक भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा। किसी भी अच्छी चीज को देखकर, सुदर्शन पुरुष या सुंदर स्त्री को देखकर मन जाता है, अच्छा मकान देखकर भी मन बहकता है, किसी का सम्मान हो रहा हो, तो अपने मन को भी लगता है कि अपना भी सम्मान होता। यह भावना स्वाभाविक है, लेकिन इस भावना को नियंत्रित अनुशासित करने के लिए विवेक जरूरी है। यदि हम चरित्र सम्बंधी भ्रष्टाचार की बात करें, तो स्त्री और पुरुष का परस्पर आकर्षण स्वाभाविक है, उनकी जो संरचना है, उसे भगवान ने ही बनाया है। पुरुष का आकर्षण महिला के लिए, महिला का आकर्षण पुरुषों के लिए स्वाभाविक है।
दु:ख क्यों होता है?

Tuesday 27 September 2011

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ

हम संसार को अनादि मानते हैं। मनुष्य अनादि काल से विकास के लिए जुटा है। विकास के प्रयास में ज्ञान भी संसाधन है। बल भी संसाधन है। विकास में हमारा व्यवहार, परस्पर सौहार्द्र और प्रेम भी संसाधन है। विकास की जो भावना है, वह हम सब लोगों में है। हम ब्रह्म के अंश हैं, ब्रह्म का स्वभाव ही विकासशील है। जो निरंतर विकासशील हो, वही ब्रह्म है, जो महान है, वही ब्रह्म है। हमारे मन में भी विकास की भावना निरंतर है, हमारा, ज्ञान बढ़े, सुंदरता बढ़े, लोग इसमें लगे रहते हैं, परिवार बढ़े, कीर्ति बढ़े, व्यवहार भी बढ़ाता है, पहचान भी बढ़ती है। विकासशील स्वभाव को सही तरीके से नहीं समझने की वजह से ही भ्रष्टाचार में संसार लिप्त हो गया है।
दु:ख क्यों होता है?

Wednesday 21 September 2011

ऐसे संत कम हैं

रामबहादुर राय
प्रसिद्ध पत्रकार
ऐसे संत कम हैं, जो विद्वान भी हैं और अपनी बात ढंग से रख सकते हैं। इनकी जो पहली योग्यता दिखती है, वह है अपने पंथ के बारे में और उसके इतिहास के बारे में बचपन से ही आकर्षण। यह भी नहीं है कि मठ के आकर्षण ने उन्हें संत बनाया हो। कई बार ऐसा भी होता है, मठ का वैभव लूटने के लिए लोग संत बन जाते हैं। बनारस में जहां ये रहकर पढ़े-लिखे हैं, एक संस्कृत विद्यालय में। उस संस्कृत विद्यालय के सामने साहित्यकार मनु शर्मा रहते थे, उनके बहुत सारे उपन्यास हैं। तब मनु शर्मा की इन सब चीजों में रुचि नहीं थी, लेकिन मनु शर्मा की माता जी जो हैं, वो रामनरेशाचार्य जी को (तब वे रामनरेशाचार्य नहीं हुए थे) बहुत मानती थीं और अपने परिवार में यह चर्चा करती थीं कि इस लडक़े को यहां से निकालना चाहिए, बहुत प्रतिभा है, बहुत क्षमता है और संस्कृत पढक़र ये भविष्य में क्या करेंगे।.. लेकिन ये उनका अपना स्नेह था, जो बालक रामनरेशाचार्य जी पर बरसता था। इससे यह मालूम होता है कि साधना करके वे यहां तक पहुंचे हैं। यह स्वाध्याय और प्रार्थना का बल है, जो वे यहां तक पहुंचे हैं। यह बात उनमें दिखाई भी पड़ती है, जो व्यक्ति स्वाध्याय और साधना से ऊपर उठता जाता है, उसमें एक स्वाभिमान भी होता है, जो रामनरेशाचार्य जी में भरपूर दिखता है।
धारणा तो यह है कि वे दिग्विजय सिंह के करीब हैं और कुछ हद तक कांग्रेस हाईकमान के भी. मेरी धारणा यह है कि दिग्विजय सिंह चूंकि रामानंद जी के एक प्रिय शिष्य संत पीपा के वंशजों में से एक हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से रामनरेशाचार्य जी का उनसे भावनात्मक लगाव है।

Monday 19 September 2011

सूचना

जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी के वीडियो देखने के लिए You Tube पर gyanghar लिख कर देखें. सामवेद के दुर्लभ पाठ से लेकर राम जी की डोली और छप्पन भोग तक।

gyanghar

सत्संग


भगवान की दया से एक बार मैं सूरत से वाराणसी के लिए यात्रा कर रहा था। प्रात: काल का समय था, लोग सो रहे थे। मैं बैठे-बैठे ईश्वर की विराट अवस्था का अवलोकन कर रहा था। कितना बड़ा आकाश, बाग-बगीचे और हमारा अपना छोटा-सा दायरा। ट्रेन में सामने ही एक सज्जन मेरी ही तरह बैठे थे। बाकी सभी लोग सो रहे थे। उन्होंने कहा, 'महाराज, मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं।'
मैंने पूछा, 'यह प्रश्न आपके मन में कैसे आया?'
उन्होंने कहा, 'बार-बार मेरे मन में आ रहा है कि आपसे कुछ पूछूं, आपसे कोई गपशप हो।'

आनंद की खोज !

बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं, 'आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है।
एक व्यक्ति ने अपने समस्त परिवार से विद्रोह करके एक अत्यंत सुन्दर कन्या से विवाह किया। रात-दिन पत्नी को खुश करने में जुट गया। एक बार वह पत्नी के साथ गंगा में नौका विहार कर रहा था, तभी आकस्मिक तूफान आने से नाव डूबने लगी। भयभीत पत्नी बोल पड़ी, 'मुझे तैरना नहीं आता, मेरी कैसे रक्षा होगी।' पति ने उत्तर दिया, 'नाव भले डूब जाए, मैं तुम्हें पार ले जाऊंगा।' वह पत्नी को कंधे पर बिठाकर तैरने लगा।

Sunday 18 September 2011

नाथ आज मैं काह न पावा

राम जी जब अपने पिता के वरदान स्वरूप जंगल जा रहे थे। उन्हें वनवासी होने का वरदान दिया गया था। कैकई ने मांगा था, रामजी को १४ वर्षों का वनवास होगा और भरत को राजा बनाया जाएगा। वनवासी राम वनवासी वेष धारण करके वन की ओर निकल गए। उस पूरे वन यात्रा में, पिता की आज्ञा के पालन की यात्रा में राम जी ने सम्पूर्ण मानवता को लाभ पहुंचाया। यात्राओं का एक विशेष स्वरूप होता है। जैसे वनस्पति वैज्ञानिको की यात्रा, जैसे खनिज वालों की यात्रा, राजनेता की यात्रा। राजनेता यात्रा करता है, तो अपने वोट बैंक को मजबूत करता है।
दु:ख क्यों होता है?

Wednesday 14 September 2011

India needs own education policy

(What jagadguru thinks about education and pakistan?)

“The English system of education introduced by Lord Macaulay in the country has failed. India should now evolve its own education policy,” remarked Jagadguru Ramanandacharya Swami Ramnareshacharya Ji Maharaj of Shrimath Kashi (Varanasi), while addressing the audience at Law Auditorium, Panjab University, today.

Swami Ramnareshacharya was invited by the Panjab University Students Association to express his views on the present education system in India and the need for proper guidance in the education field in colleges and universities .

Regarding the possibility of a war, the Swami said: “India is not interested in extending her territory but wants protection at the LoC. And for this purpose, India should not be afraid of any world power.”

Commenting on the recent events, including an attack on the World Trade Centre and America’s war against terrorism, he categorically stated, ‘’It was in the knowledge of America that Osama bin Laden is Pakistan’s creation and that is why it directed Pakistan to locate Osama bin Laden.”

He further said, “India should dispell fear and leave the policy of wait and watch. India should repell terrorists activity with vigour and force. The country should not fear even declaring a war against Pakistan and should strike at the very root of evil”.

“There are some other supreme powers which do not want that Pakistan and India should lead peaceful lives. The conflict between the two countries suits them”, he added.

A report published in the tribune

Chandigarh, January 4, 2002

Tuesday 13 September 2011

हरिद्वार में अद्वितीय श्रीराम मंदिर निर्माण



संसार के जो महामनीषी श्रीराम को भगवान के रूप में नहीं स्वीकार करते वे भी उन्हें विश्व इतिहास का सर्वश्रेष्ठ मानव मानते ही हैं। विश्व के किसी भी देश, जाति, संप्रदाय एवं धर्म के पास श्रीराम जैसे चरित्रनायक नहीं है। वर्तमान संसार की अखिल संस्कृतियां श्रीरामसंस्कृति की ही जीर्ण-शीर्ण-विकृत एवं मिश्रित स्वरूप है। यह संस्कृति अनुसंधान नायको की प्रबलतम भावना है। ऐसे मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का मंदिर कहां नहीं होना चाहिए? संसार के सभी क्षेत्रों कालों एवं दिशाओं में होना चाहिए, तभी तो मानवता का सम्पूर्ण विकास होगा। धर्म की स्थापना होगी एवं तभी रामराज्य की स्थापना होगी।

दुनिया में इतना दुख क्यों है?

एक दिन मैं बिहार यात्रा में किसी गांव जा रहा था। विभिन्न स्वभाव और विभिन्न आयु व आकार-प्रकार व अवस्थाओं के लोग साथ थे। उन लोगों ने कई प्रकार की चर्चाएं छेड़ रखी थीं, लेकिन उन चर्चाओं का कोई समाधान नहीं हो रहा था। कोई पूछ रहा था कि माता पिता को लोग क्यों नहीं मान रहे हैं, कोई भ्रष्टाचार की बात कर रहे थे। हर आदमी के मन में कोई न कोई जिज्ञासा थी, लेकिन उसका समाधान उस समूह के द्वारा नहीं हो रहा था। देखने से यही लग रहा था कि लोग जिज्ञासु हैं, जानने की इच्छा है। शास्त्रों में लिखा है, जिज्ञासा तभी होती है, जब संदेह हो और जब अपना मतलब सिद्ध होना हो। तो दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जिसे जिज्ञासा नहीं हो। हर किसी को कोई न कोई मतलब भी है और संदेह भी है।
दु:ख क्यों होता है?

Monday 12 September 2011

प्रतिशोध की भावना क्यों?

(महाराज का एक प्रवचन)

सबके मन में प्रतिशोध की भावना होती है, सबके मन में यह भावना होती है कि उसके हिसाब से ही सारे काम हों। सबके अपने-अपने संकल्प होते हैं। लेकिन इसके लिए जो लोग हमारे विपरीत हैं, उनका हम क्या करें? हमें बनाना है राम राज्य और हम प्रयोग कर रहे हैं रावण राज का। सरेआम सड़क पर गलत काम हो, व्यभिचार हो, यह कदापि उचित नहीं। इस तरह से राम राज्य नहीं आएगा। रावण तो आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक हुआ। उसने तो राम जी की पत्नी का ही धोखे से अपहरण कर लिया। ब्राह्मणों की तो हत्या रोज ही होती थी, वेद ध्वनि बंद हो गई थी, यज्ञ बंद हो गए, माता-पिता का सम्मान बंद हो गया था, देवताओं का कोई सम्मान नहीं रहा। अर्थ यह कि धर्म की, श्रेष्ठता की, पवित्रता की, मर्यादाओं की, अच्छी परंपराओं की विधियां नष्ट हो गई थीं। दंड व प्रतिशोध का कोई विकल्प नहीं बच गया था।
दु:ख क्यों होता है?

चातुर्मास संपन्न

जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी का इंदौर चातुर्मास आज संपन्न हो गया, गीता भवन इंदौर में चातुर्मास काल में महाराज जी के दर्शन के लिए देश और विदेश से भी भक्त पधारे. हिन्दू धर्माचार्यों में स्वामी जी का चातुर्मास बहुत महत्व रखता है, आम तौर पर चातुर्मास अत्यंत कठिन और पवित्र विधान है, स्वामी जी ने चातुर्मास की परंपरा को एक तरह से पुनर्जीवन दिया है. चातुर्मास काल में स्वामी जी का सानिध्य अत्यंत लाभकारी और उर्जावान हो जाता है. वे अपनी सम्पूर्ण उपस्थिति से राम भाव का संचार करते अनुभूत होते हैं. वे ऐसे महात्मा हैं, जिनके सामने अरबपति से लेकर गरीब तक सबका समान महत्व है. इस पावन काल में न केवल उनके भक्त बल्कि देश भर के विद्वान और संत महात्मा भी जुटते हैं, ऐसे ऐसे महत्मा जुटते हैं जिनके दर्शन आम दिनों में संभव नहीं. उनके तत्वावधान में केवल ब्राहमण सभा ही नहीं होती, स्वामी जी हरिजन बस्तियों में भी जाते हैं और अपने श्रीमठ की उपयोगिता एवं परम्परा का निर्वहन करते हैं.

Sunday 11 September 2011

स्वामी रामनरेशाचार्य जी


रामबहादुर राय
स्वामी रामानन्द ने जहां से भक्ति आंदोलन चलाया, वह काशी का पंचगंगा घाट है। उस पर श्रीमठ है। इस मठ का नामकरण अपने आप में भक्ति की गंगोत्री का प्रतीक है। श्री का अर्थ सीता से है। साफ है कि स्वामी रामानंद का भक्ति आंदोलन भगवान श्रीराम का गुणगान है। जब स्वामी रामानंद का सप्तशताब्दी महोत्सव मनाया गया, उसके अध्यक्ष तत्कालीन मुख्यमंत्री दिज्विजय सिंह थे, उस समय यह जाना जा सका कि वे संत पीपा के वंशज हैं। याद करिए कि स्वामी रामानंद के शिष्यों में एक पीपा भी थे। जो श्रीमठ था, वह स्वामी रामनरेशाचार्य से पहले श्रीहीन हो गया था। उसे जगाने में स्वामी रामनरेशाचार्य लगे हैं, विद्वानों का मानना है कि श्रीमठ बहुत विशाल था। आश्चर्य की बात है कि स्वामी रामानंद का विशाल आनंदमठ और श्रीमठ ऐतिहासिक रूप से प्राय: लुप्त हो गए। स्वामी रामानंद का वह विशाल वन, जिसमें हजारों संन्यासी रहते थे, सैंकड़ों सूफी, पचासों संत, फकीर, जंगम, जोड़े, नाथपंथी रहता करते थे, वहां लोगों के घर हैं।
दु:ख क्यों होता है?

जय जय देव हरे


(श्री जयदेव रचित आरती जो जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी को अत्यंत प्रिय है। विशेष पूजा के अवसर पर वे इसी आरती को बड़ी भक्ति भाव से गाते हैं।)






मंगलगीतम
श्रितकमलाकुचमण्डल धृतकुण्डल ए।
कलितललितवनमाल जय जय देव हरे।।
दिनमणिमण्डलमण्डन भवखण्डन ए।
मुनिजनमानसहंस जय जय देव हरे।। श्रित ..।।
कालियविषधरगंजन जनरंजन ए।
यदुकुलनलिनदिनेश जय जय देव हरे।। श्रित ..।।
मधुमुरनरकविनाशन गरुडासन ए।
सुरकुलकेलिनिदान जय जय देव हरे।। श्रित .. ।।
अमलकमलदललोचन भवमोचन ए।
त्रिभुवनभवननिधान जय जय देव हरे।। श्रित .. ।।
जनकसुताकृतभूषण जितदूषण ए।
समरशमितदशकण्ठ जय जय देव हरे।। श्रित ..।।
अभिनवजलधरसुन्दर धृतमन्दर ए।
श्रीमुखचन्द्रचकोर जय जय देव हरे।। श्रित ..।।
तव चरणे प्रणता वयमिति भावय ए।
कुरु कुशलं प्रणतेषु जय जय देव हरे। श्रित.. ।।
श्रीजयदेवकवेरुदितमिदं कुरुते मृदम्।
मंगलमंजुलगीतं जय जय देव हरे।। श्रित .. ।।

छप्पन भोग और भगवान श्री राम की आरती















छप्पन भोग और भगवान श्री राम की आरती, इंदौर चातुर्मास, 7 सितम्बर

swami Ramnareshacharya ji

The present presiding Swami of Ramanandacharya peeth swami Ramnareshacharya ji maharaj is an embodiment of deep learning and devotion. he has the sterling qualities to guide his bhaktas to sail through the rough and tumble of life. there is no two opinions that swami Ramnareshacharya will bring back the glory and halo of his holiness swami Ramanandachary by sheer dint of his spiritual glow and understanding of the current times and needs.
He has the lofty and laudable idea of constructing Ram Temple at the four corners of the country to spread the message of peace and harmony among different castes and communities in the footsteps of lord sri Ram and guru ramanand ji.
swami ji has been opposed to the politicisation and communalisation of lord sri Ram. Which is unabashedly being done by some un-scrupulous people for furthering their own ends. lord sri Ram does not belong exclusively to anybody. He is of everybody so, He cannot be appropriated. he is benevolent and let him guide us to the right path. His holiness swami ramnareshacharya ji would be able to translate his thoughts into reality to help the man-kind to achieve peace and salvation.

जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी








Friday 9 September 2011

जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज


इंदौर चातुर्मास में ७ सितम्बर को भव्य राजोपचार पूजन की पावन प्रक्रिया में भगवान श्री राम का जलाभिषेक करते महाराज जी और पंडित रानाटे जी के नेतृत्व में वेद पाठ करते काशी से पधारे चार विद्वान.

Saturday 3 September 2011

संत वही जो पंथ दिखाए


जगदगुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य आज के आपाधापी भरे, भौतिकता के प्रमाद में ऊभचूभ करते समय में एक ऐसे अकम्पित ज्योति-स्तम्भ हैं, जिनसे जो भी चाहे अपने जीवन में प्रकाश पा सकता है। एक ऐसे स्नेहिल-प्रेमिल संत, जो धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-दर्शन और तत्व चिंतन के अगाध समुद्र हैं और जिनकी शीतल वाणी हृदय के दाह को शांत करके मन के तार को इस तरह झंकृत कर देती है।
जगदगुरु रामनरेशाचार्य हजार वर्षों से चली आ रही रामभक्ति परम्परा की जो पावन मंदाकिनी है, उसके प्रतिनिधि आचार्य हैं और उस तत्वदर्शी संत शिरोमणि आचार्य रामानंद सम्प्रदाय के पीठाधिपति हैं, जिस सम्प्रदाय में ऊंच-नीच का भेद नहीं किया जाता और समाज के सर्वाधिक पिछड़े दलितों को भी बराबरी का सम्मान दिया जाता है। स्वयं जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी जहां भी जाते हैं, वंचितों व दलितों को भी वही स्नेह और मान देते हैं जिसकी अपेक्षा ऊंचे व श्रेष्ठिï वर्ग के लोगों को रहती है। वे कहते भी हैं कि बहुत मोटे-मोटे, धनवान और चिकने-चुपड़े सुंदर लोग ही धर्म के अधिकारी हैं, ऐसी बात नहीं है। जो धर्म ईश्वर का स्वरूप है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ और उपयोगी पक्ष है, वह सबका है। जैसे कि प्राणवायु सबकी है। वे प्रतिप्रश्न करते हुए व्याख्या करते हैं- जल अलग है क्या? आकाश अलग है क्या? आप धनवान हैं तो अपने ऊपर धन लुटा सकते हैं किंतु आपको खुले आकाश में आना पड़ेगा। यदि आपने किसी के लिए आह भी भर दी, यदि कोई पीडि़त है और हम उसकी पीड़ा के निवारक संसाधन दे पाए तो यह करुणा है और यह करुणा धर्म पे्ररित है। सम्बंधों का निर्वाह जितना गरीब आदमी करता है, उतना धनिक व्यक्ति नहीं करता। यह दुनिया में आमचर्चा है। वैसे सम्बंध के निर्वाह में भी धर्म की ही भूमिका है। रविदास को सबने रोका किंतु वे धर्म की श्रेष्ठï माला हो गए। जो भी ध्यान, नियम-संयम और जप-तप करेगा, उसके लिए कोई दिक्कत नहीं है। इसीलिए आचार्य रामानंद ने वर्णाश्रम व्यवस्था की जो दीवारें थीं, उनको तोडऩे के लिए लड़ाई नहीं की, क्योंकि इसमें पड़ते तो उनकी एनर्जी इसी में समाप्त हो जाती। साइड वाली नहर नहीं निकल पाती और जहां पानी की जरूरत थी, वहां लोग सूखे ही रह जाते। इसीलिए 'संस्कृति के चार अध्याय' में दिनकर जी ने कहा है कि आचार्य रामानंद बहुत ही जागरूक और दक्ष महात्मा हैं। आचार्यों की परम्परा ने शूद्रों को वेद पढऩे की अनुमति नहीं दी तो उन्होंने कहा- 'आप राम-राम बोलिए, भज लो साधु सीताराम...हरि को भजै सो हरि का होई।' रामनरेशाचार्य जी कहते हैं कि इसीलिए अस्पृश्यता का प्रश्न हमारे यहां नहीं है और शराब पीकर ब्राह्मण भी आता है तो हमें दिक्कत है, क्योंकि धर्म आचार-विचार और शुद्धता का क्षेत्र है, जिसकी अपेक्षा सभी से है यानी ब्राह्मणों से भी, शूद्रों से भी।

अब आइए, संत-आचरण के दूसरे पहलू पर गौर करते हैं, जो जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी से ही संदर्भित है। आज जबकि हम देखते हैं कि राजनेताओं से मिलने-जुलने और उनके आगे-पीछे घूमने में ही कुछ भगवाधारी गौरव महसूस करते हैं और राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर सत्तारूढ़ दलों के मंच पर सुशोभित होने को उपलब्धि की तरह देखते हैं, ऐसे में एक निस्पृह संत के रूप में धर्म-मर्यादा की सर्वोच्चता का स्वामी रामनरेशाचार्यजी पूरी गरिमा और दृढ़ता से पालन करते हैं। देश के शीर्ष राजनीतिज्ञ मसलन पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत चंद्रशेखर और राजीव गांधी समेत ज्ञानी जैल सिंह और वर्तमान में भी अनेकानेक राजनेताओं को रामनरेशाचार्य जी का स्नेहपूर्ण आशीर्वचन मिलता आया है, इसके बावजूद इस मामले में उनके विचार बहुत स्पष्टï और आंखें खोल देने लायक हैं। वे कहते हैं- नि:संदेह मेरे पास देश के शीर्ष राजनीतिक आते-जाते हैं और मुझमें आस्था रखते हैं, मुझे श्रद्धा का केंद्र मानते हैं तो यह तो धर्म के लिए अच्छी बात है कि धर्म आकर्षक है-अपनी ओर खींचता है। जिन राजनयिकों से लोगों की आस्था समाप्त हो रही है, जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन सत्ता, कुर्सी बचाने में, धन कमाने में लगा है, जिनके यहां कोई लोकतांत्रिक मूल्य नहीं हो पा रहा है, यदि वे लोग यहां आते हैं तो धर्म की जरूर प्रशंसा होनी चाहिए। यही नहीं, जो आ रहे हैं- कम हैं, सबको आना चाहिए। क्योंकि अच्छे स्थान पर, महात्मा के यहां शीर्षस्थ आदमी भी आ सकता है और भूमिस्थ भी आ सकता है। आखिर नेता समाज के बाहर के लोग नहीं हैं।
लेकिन साथ ही स्वामी जी यह भी कहते हैं कि हां, उस धर्मगुरु की आलोचना की जा सकती है जो अपना स्वरूप तिरोहित करके राजनीतिक मूल्यों को उजागर कर दे और उसे श्रेष्ठता दे दे। चुनाव प्रचार करना, उनकी गलत बातों का समर्थन करना- तब तो महात्मा आलोच्य होना ही चाहिए, वह संदेह के घेरे में है। रामनरेशाचार्य जी कहते हैं कि यह बहुत गलत है कि बड़े नेताओं के आने पर संत उठकर खड़े हो जाएं। इस संदर्भ में वे एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं- 'मैं गुजरात गया था एक बड़े समारोह में। नरेंद्र मोदी आए थे तो वहां जो वरिष्ठï संत बैठे थे, कई तमाम गादीपति, तो वो लोग उठकर खड़े हो गए, जबकि सनातन धर्म में संन्यासी का दर्जा आश्रम की दृष्टि से बड़ा माना गया है। और इतना ही नहीं, उन्होंने उनके साथ इस तरह प्रणाम विधि का सम्पादन किया जैसे आधुनिक समाज में होता है- हाथ पकड़कर फिर हिलाना। जबकि अद्भुत सम्मेलन था वह। तीन लाख लोग पंडाल में, पांच लाख बाहर और सबको भोजन मिलने वाला था। मंच शानदार। मैं सर्वाधिक शीर्ष पर बैठाया गया था, सिर पर छत्र लगा था लेकिन मेरे भीतर सिर्फ एक महात्मा था- न उससे अधिक कुछ, न उससे कम कुछ। मोदी ने झुककर प्रणाम किया और मैंने आशीर्वाद दिया। यदि मैं पूछने लग जाता कि मोदी जी कैसे हो? उनके साथ चित्र खिंचवाने लग जाता, उनकी प्रशंसा में लग जाता तो...? कहने का मतलब यह कि संत अपने मार्ग से विचलित न हो, राजनयिक उनके पास आएं, जो नहीं जुड़े हैं, वो भी मुझसे जुड़ें, यह तो समाज के लिए अच्छा है।'

यहीं पर यह याद कर लेना भी जरूरी है कि जब अयोध्या के विवाद को राजनीतिक बवंडर उठाकर अंधी गुफा में धकेलने की पूरी कोशिश की जा रही थी, तभी उस उथल-पुथल के दौरान स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज ने 'राम भाव प्रसार यात्रा' जैसे विधायी आयोजन के माध्यम से भक्ति और आस्था के प्रकाश का प्रसार किया। अपनी इस यात्रा के बारे में वे कहते हैं- वह मेरे मन की भावना थी। हम रामभक्त हैं तो हमें जाना ही चाहिए अयोध्या दर्शन करने। कष्टï उठाकर अपने आराध्य के पास पहुंचने में यात्राओं का अपना महत्व है। बाकी किसी आंदोलन, व्यक्ति और पार्टी का विरोध अथवा समर्थन करना हमारा लक्ष्य नहीं था। हम सर्वत्र उन मूल्यों की चर्चा करते रहे कि कैसे लोगों में राम भाव आए। वे बताते हैं कि हमें कुछ राज्य सत्ताओं ने राज्य अतिथि का भी दर्जा देने का प्रस्ताव किया था, लेकिन हमने कहा- नहीं। यदि संत राज्य अतिथि का दर्जा पा जाएगा तो धर्म का कार्य कैसे चलेगा?
सच्चे संत का जीवन स्वयं में ऐसा दर्पण होता है, जिसमें झांककर कोई भी चाहे तो आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी साधना पथ पर कैसे अग्रसर हुए और उनके भीतर एक आध्यात्मिक संत, एक महात्मा, एक जगदगुरु का कैसे प्राकट्ïय हुआ- यह भी जान लेते हैं। दर्शन, व्याकरण और तर्कशास्त्र के निष्णात आचार्य होने के साथ ही अगर उनके भीतर आज रामभक्ति मंदाकिनी की अविरल धारा प्रवाहित है तो इसलिए, क्योंकि आचार्यश्री ने इसके लिए अविचल, ऐकांतिक साधना की है। वे कहते हैं कि ऐसा होने में प्रारब्ध का बहुत बड़ा हाथ है, जीवन-प्रवाह में घटनाएं तो बस निमित्त मात्र होती हैं।
वे बताते हैं- विद्वान बनने की मन में गहरी लालसा थी। इच्छा थी कि शिक्षा के क्षेत्र में यशस्वी जीवन पाऊं। शुरू से पढऩे में दक्ष था और छोटी अवस्था से ही मुझे उसके लिए पहचान, स्नेह और सम्मान मिलने लगा था। किंतु मुझे ऐसा लगा कि वहां (गांव में) मेरी पढ़ाई के अनुकूल वातावरण नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि आदमी अज्ञानता से ही दुखी होता है। मैं देखता था कि लोगों को जीवन जीना नहीं आ रहा है। ग्रामीणों को अनावश्यक रूप से दुखी देख रहा था। एक बच्चा पालने की स्थिति नहीं है और सात बच्चे हैं। जहां झगड़े को टाला जा सकता है, वहां लडऩा, कहासुनी, मुकदमेबाजी और अनावश्यक बतकही। मैंने देखा कि ज्यादातर लोग शादी वाले कारण से दुखी हैं। शादी हुई, बच्चा हो गया, पति-पत्नी का झगड़ा शुरू हो गया। बच्चे नालायक निकल गए, वो तंग कर रहे हैं और मां-बाप हैं कि उन्हीं के लिए मरे जा रहे हैं। सो, बालपन की उसी कच्ची उम्र में आचार्यश्री ने तीन संकल्प लिए- विद्वान होना, विवाह न करना और लौटकर नहीं जाना।

वे बताते हैं- मैं पूरी योजना के साथ घर से कलकत्ता के लिए कहकर काशी चला आया। उस समय साधु होने का उद्देश्य नहीं था और न ही ईश्वर को प्राप्त करने की भावना थी। बस विद्वान होने की ललक। वाराणसी में वे संतों के संसर्ग में आए और तरह-तरह की लोलुपता से बचकर संयमित जीवन के साथ दर्शन शास्त्र का अध्ययन करने लगे। इसी दरम्यान उनके भीतर धीरे-धीरे आस्था का विकास होता चला गया। आचार्यश्री याद करते हैं, जब आठवीं कक्षा में था तो लोग आश्चर्य करते थे कि इस छोटी अवस्था में यह माक्र्स को भी पढ़ता है और टीका भी लगाता है। उस समय को याद करते हुए वे बताते हैं कि मुझे एक तरह से जबरदस्ती दीक्षित कर दिया गया, हालांकि तब भी लक्ष्य विद्वान बनना ही था। मेरे गुरुजी भी बहुत संयमी थे। आमदनी का कोई स्रोत नहीं था, सो कम से कम में निर्वाह होता था। न्यायशास्त्र आदि के अधिकतर ग्रंथों को स्वयं ही पढ़ा। इसी तरह स्वाध्याय के बल पर सांख्य, योग, व्याकरण आदि का अध्ययन-मनन किया। संतश्री बताते हैं, नौकरी भी समय से बहुत प्रतिष्ठिïत मिल रही थी, जब मेरे पढ़ाए हुए लोग विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर हैं तो मेरे लिए यह आसान ही थी। किंतु पढ़ाई के साथ-साथ धार्मिक-आध्यात्मिक आस्था का विकास हुआ और उस आस्था ने बैरागी बना दिया। आचार्यश्री कहते हैं, यह मेरा प्रारब्ध था, जिसने मुझसे घर छुड़वाया।

ज्ञान की गहरी प्यास और आस्था के उत्कट उद्भास के मणिकांचन संयोग से हमारे बीच जगदगुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य के रूप में एक ऐसे अनासक्त संत का प्राकट्य हुआ है, जो कहता है कि पीठाधीश्वर वगैरह तो हमारे आगे-पीछे की चीजें हैं- बहुत साधारण-सी बात है। बड़ी से बड़ी गद्दी के लोग मुझे छात्रावस्था में ही वैसा आदर देने लगे थे कि मैं बहुत बड़ा आदमी हूं। पीठ की कोई आकांक्षा नहीं थी, लेकिन जब श्रीमठ का प्रस्ताव आया तो लगा कि सेवा का यह उपयुक्त स्थल है। मोक्ष नहीं, बल्कि रामभाव की भक्ति और सेवा ही स्वामी रामनरेशाचार्य जी की परम कामना और परम साधना है। हमारा सौभाग्य है कि हमारे बीच एक ऐसा संत है, जिसकी शीतल वाणी और आशीर्वचन से मन की सारी मलिनता और क्लेश धुल जाते हैं।
(जैसा उन्होंने डॉ निशीथ राय जी को बताया )
(डॉ निशीथ राय लखनऊ से प्रकाशित डेली न्यूज एक्टिविस्ट के चेयरमैन और प्रबंध संपादक हैं.)
साभार

ना पूछो फिर जात पात



आध्यात्मिक साधना का जो फल होता है, उद्देश्य होता है, लगभग वैसा ही फल व उद्देश्य राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक साधना का होता है। राष्ट्र समृद्धि को प्राप्त हो, सुंदरता को प्राप्त हो, यही लोकतंत्र का लक्ष्य है। ऎसी सेवा साधना के लिए जाति का क्या महत्व हो सकता है? लोकतंत्र में जाति के आधार पर नागरिकों की गणना करना राष्ट्र को चरम लक्ष्य तक पहुंचने से वंचित करने के समान है। ऎसी गणना से हम कोई सकारात्मक लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे। जाति भेद क्यों बढ़ाया जा रहा है? अगर सूर्य देव भेदभाव करें, अगर वायुदेव भेदभाव करें, तो क्या होगा? मुझे लगता है, जिस दुर्भावना से ग्रस्त होकर अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना करवाई थी, उससे सावधान रहना चाहिए। वे बांटों और राज्य करो वाले लोग थे, इसके लिए उनका अपना संविधान था, किन्तु अब हमारा अपना संविधान है, हमारे यहां वैसा नहीं होना चाहिए। प्रयास ऎसे हों कि लोगों में परस्पर प्रेम बढ़े, भेद नहीं।आज पूज्य रामानन्दाचार्यजी के जाति भेद विरोधी वचनों का स्मरण करने की आवश्यकता है। राष्ट्र में कृषि विकास हो, शिक्षा, चिकित्सा या सैन्य विकास हो, किसी भी तरह के विकास में जाति की कोई आवश्यकता नहीं है, जैसे प्रेम और भक्ति में जाति की कोई आवश्यकता नहीं है। धागा जितना बड़ा होगा, उतनी ही बड़ी माला बनेगी। जाति आधारित जनगणना होगी, तो धागा टूट जाएगा। अपने राष्ट्र में पहले ही विखंडन बहुत हो चुका है, पाकिस्तान अलग हुआ, श्रीलंका अलग हुआ, बर्मा अलग हुआ, लेकिन अभी भी कई लोग हमें और बांटने के अवसर ढूंढ़ रहे हैं। ऎसी जनगणना से राष्ट्र का मार्ग कतई प्रशस्त नहीं होगा। हमें प्रयास करने चाहिए कि हमारी सांस्कृतिक धारा का विस्तार हो, उसकी उज्ज्वलता बढ़े। अशोक ने इसी राष्ट्र में महान गौरव प्राप्त किया, राष्ट्र के लिए आवश्यक श्रेष्ठ भावों को व्यक्त किया, परन्तु वे किस जाति के थे, कौन जानता है? भारत में जो लोग भेदों की दीवारों को तोड़ने में सफल हुए, वही आगे बढ़े हैं। जाति की पूछ-परख अनुचित है। पुरानी बात है। टिकट बंटवारा हो रहा था, पण्डित नेहरू ने एक जाति विशेष के व्यक्ति को टिकट दिया। जाकिर हुसैन ने पूछा कि उसे आपने टिकट क्यों दिया, उन्हें उत्तर मिला कि अमुक क्षेत्र में अमुक जाति के ज्यादा लोग हैं। जाकिर हुसैन ने तब विरोध किया था कि एक खतरनाक शुरूआत हो रही है। जाकिर हुसैन जाने-माने विद्वान नेता थे, राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण थे, उन्होंने तभी अनुभव कर लिया था कि एक बड़ा खतरा तैयार हो रहा है।
अब जाति आधारित जनगणना के प्रयास करने वाले न जाने कैसे लोग हैं? क्या चाहते हैं? क्या देश का विकास चाहते हैं? गणना तो उनकी होना चाहिए, जो हमारे राष्ट्र में अवैध रूप से रह रहे हैं। गणना तो इसकी होना चाहिए कि कौन अपने स्वार्थ को पहले रखता है और कौन राष्ट्र को पहले रखता है? आज आप पूछिए, तो उत्तर मिलेगा, सबसे पहले अपना जीवन महत्वपूर्ण है, उसके बाद धन महत्वपूर्ण है, फिर अपना परिवार व समाज या जाति महत्वपूर्ण है, किन्तु यह तो राष्ट्रीय भावना को निगलने जैसी बात है। हमारी सारी अच्छाइयों को निगल रहा है स्वार्थ। गणना तो इसकी होना चाहिए कि राष्ट्रीयता के पैमाने पर किसके कितने अंक हैं? निरंतर कहा जाता है कि दूसरे देशों में राष्ट्रवादी भावना ज्यादा है। हमें भी तो हर भेद से परे अपने राष्ट्र का चिंतन करना चाहिए। आज पहले से पता होता है, जाति आधार पर टिकट बंटेगा। आरक्षण है। असंतोष बढ़ रहा है। विप्लव होगा, आतंककारी भावना बढ़ेगी। जगदगुरू स्वामी रामानन्दाचार्य कहते थे, जात पात मत पूछो। आज जाट भाई अपनी जाति से मुख्यमंत्री बनाने की मांग करते हैं, किन्तु स्वामीजी ने जाति से जाट धन्नाजी को आज से सैकड़ों वष्ाü पहले ब्राह्मणों की पंक्ति में बिठाया था।
जहां तक महिला आरक्षण का प्रश्न है, तो मेरा मानना है, यह होना चाहिए। इस राष्ट्र की संस्कृति ने महिलाओं का जितना सम्मान किया, उतना किसी राष्ट्र ने नहीं किया। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, तो उन्होंने कहा, मैंने सीता चरित का गायन किया है, राम चूंकि उनके पति हैं, इसलिए सीता चरित में वे भी हैं। दुनिया में नारी को केन्द्र में रखकर उस जैसा दूसरा ग्रंथ नहीं है।
इंदिरा गांधी को जिस सम्मान के साथ राष्ट्र ने प्रधानमंत्री बनाया, वैसा आज तक कहीं नहीं हुआ। नारी स्वतंत्रता की बात करने वाले अमेरिका, रूस में भी नारी न तो सुप्रीम कोर्ट में उच्च पद पर पहुंची है और न राष्ट्रपति बन सकी है। चीन अभिमान करता है, लेकिन उसने अपने सबसे बड़े नेता माओ के निधन के बाद उनकी पत्नी को किनारे कर दिया। लोग कहते हैं, नारी बाहर जाएगी, तो कैसे संघर्ष करेगी, बाहर तो बड़ी गंदगी है, गुंडे हैं। इसके लिए तो पहले हमें बाहर सफाई करना चाहिए। नारियों को बाहर आने से रोकने की बजाय हमें बाहर की दुनिया की जो गंदगी है, उसका सफाया करना होगा। व्यवस्था न सुधरे, तो कोई भला पुरूष भी आगे नहीं आएगा, çस्त्रयों के आगे आने की तो बात छोडिए। आरक्षण में जो आरक्षण की बात कर रहे हैं, वे दकियानूसी लोग हैं। महिला आरक्षण संभव हुआ, तो हमारी संस्कृति के साथ एक ऎसी विशेषता जुड़ेगी, जिसकी बराबरी संसार का कोई राष्ट्र नहीं कर पाएगा। तमाम आरक्षण हो रहे हैं, किन्तु महिला आरक्षण पहले होना चाहिए।
स्वामी रामनरेशाचार्य
रामानन्द संप्रदाय के प्रधान
(जैसा उन्होंने ज्ञानेश उपाध्याय को बताया, पत्रिका में प्रकाशित लेख)

Thursday 1 September 2011

वंदे गुरु परम्पराम


राम राघव राम राघव राम राघव रक्ष माम
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम
राम राघव राम राघव राम राघव रक्ष माम
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम.
प्रभु की अनुकम्पा, असंख्य पूर्व जन्मों के पुण्य प्रताप के प्रकट होने के कारण हम सभी लोगों को सर्वश्रेष्ठ भारत भूमि सर्वश्रेष्ठ वैदिक सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन की प्राप्ति हुई है। मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठता केवल ऐसे ही संपन्न नहीं हुई होगी। जब तक हम इसके माध्यम से परम फल को नहीं प्राप्त करेंगे। भगवान के दिव्य धाम जाने के बाद वापस नहीं लौटना पड़ता है। ८४ लाख योनियों में से किसी योनी को प्राप्त नहीं करना पड़ता है। जीवन के सम्पूर्ण अभाव, कुरूपता, सम्पूर्ण अप्रतिष्ठा, सम्पूर्ण जीवन की जो विडंबना है, वह हमेशा हमेशा के लिए दूर हो जाती है। हमें इस मानव जीवन के माध्यम से उसको प्राप्त करना है। कैसे उसकी प्राप्ति होगी, इसके लिए शास्त्रों में जो निर्देश हैं कि हम भगवान को सुनें, उनको गाएं, उनका स्मरण करें. उसके माध्यम से भगवान प्रसन्न होंगे। वह हमें परम फल को देंगे, परम अवस्था को देंगे। भगवान तो वैसे दयालु हैं, लेकिन जब हम उनके निर्देश के अनुसार जीवन बिताने लगते हैं, तो उनकी दया का हमें अनुभव होने लगता है। उनकी विशेष दया हमारे ऊपर बरसने लगती है, तो हमें परम फल की प्राप्ति होती है। वैसे तो उन्होंने हमें जीवन दिया, वर्षा दे रहे हैं, भोजन दे रहे हैं, वायु दे रहे हैं, प्रकाश दे रहे हैं, अवकाश दे रहे हैं, आकाश दे रहे हैं, यह सभी भगवान ही दे रहे हैं। कल्पना कीजिए अगर आकाश नहीं होता, तो हम आवागमन कैसे करते हैं। आकाश ही अवकाश प्रदान करता है। उससे आवागमन संपन्न होते हैं। पृथ्वी ही आधार प्रदान करती है, जिस आधार पर हमारा जीवन व्यवस्थित है, नहीं तो हम कहां रहेंगे। कहीं भी आधार आपको प्राप्त हो, तो पृथ्वी का ही स्वरूप आपको प्राप्त होता है। चाहे आप हवाई जहाज में हों या जल में, जल में आखिर कितनी देर तक ठहरेंगे आप।
तो भगवान की दया से व अनुपम कृपा से हमें अत्यंत मंगलमय मानव जीवन प्राप्त हुआ है। अत्यंत निश्छल भावना से, संयम से तत्परता से, आदर और प्रेम से इसका हम लाभ उठा रहे हैं। संसाधनों को अपने जीवन से जोड़ रहे हैं। अभी आप लोगों ने आचार्य जयकान्त शर्मा जी से भगवान की अत्यंत मंगलमय लीला को सुना। भगवान लीला करते हैं, लोगों, भीलों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए। भगवान की लीला का यही प्रयोजन है। हम सब लोगों का भी यह बड़ा स्वभाव है, लेकिन यह अच्छा नहीं। अपनी ओर आकर्षित करने के लिए संसार के जो अज्ञानी जीव हैं, जो अधो जीवन के लिए प्रयास करते हैं, लोग काम और अर्थ के सम्पादन में ही सम्पूर्ण जीवन के अमूल्य क्षणों का विनियोग कर रहे हैं। ऐसे जीव भी अपनी ओर लोगों को आकर्षित करते हैं लोगों को. जैसे सिनेमा के लोग हैं, सिनेमा के लोग अपनी लीलाओं व भाव अभिनय से, अपने बनावटी रूपों से लोगों आकर्षित करते हैं, अपने दर्शको को आकर्षित करते हैं। तो उस सिनेमा को लोग कहते हैं कि वह सुपरहिट हो गई। बनाने वालों को भी लाभ होता है, उसमें काम करने वालों को भी लाभ होता है। सिनेमा हॉल वालों को भी लाभ होता है, उससे जुड़े तमाम लोगों को लाभ होता है। लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जो सस्कार रहित है, शास्त्रीय संस्कार से कहीं उसका स्पर्श नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष की हल्की-फुल्की भी कामना नहीं है। ऐसे लोग संसार में अधिक हैं और वे लोग ही प्रभावित करते हैं। राजगद्दी पर जो लोग बैठे हैं, उनमें भले संस्कार न हो, लेकिन वे सबको प्रभावित तो करते ही हैं।
श्रोता भगवान का भक्त हो न या हो, लेकिन मेरा शिष्य तो हो ही गया। समर्थ रामदास जी (शिवाजी के गुरु) ने अपनी अमर कृति श्रीमत दसबोध में बहुत जोर-शोर से कहा, सनातन धर्म के श्रेष्ठ के उन्नायको में उनका भी नाम आदर के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ७०० हनुमत विग्रहों की स्थापना की। वे हनुमत विग्रह परम तेजस्वी रूप में समाज में आज भी प्रतिष्ठित हैं और असंख्य लोगों के कल्याण का कारण बन रहे हैं। उन्होंने कहा कि वक्ता में कई गुण होने चाहिए, उसमें एक गुण यह भी है उसके मन में यह भाव भी नहीं आए कि श्रोता मुझसे प्रभावित हो रहा है। बहुत गलत है, वक्ताओं का खूब शृंगार करके आना। ऐसे आते हैं, जैसे विवाह के लिए आ रहे हों।
यह स्वभाव हमारा है, लोकेषणा के साथ हमलोग आए हैं। हमारा सम्मान बढ़े, हमें आदर मिले। लोग हमारी प्रशंसा करें, जयजयकार करें, हमें धन दें, इत्यादि। भगवान भी अवतार लेकर यही काम करते हैं, लेकिन वे जीवों को धन्य बनाने के लिए करते हैं। अपना उनका कोई स्वार्थ नहीं है। हम लोग अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। हमसे कोई प्रभावित होगा, हमारा मान बढ़ेगा, आश्रम बढ़ेगा, हमारी दक्षिणा बढ़ जाएगी। हमें नमस्कार करने वालों की संख्या बढ़ जाएगी। हमें अधिक लोग जानने लग जाएंगे। जिन संतों ने गुफाओं में रहकर जीवन को धन्य बनाया, उनका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास के पृष्ठों में वे नहीं हैं। ऐसे करोड़ों-करोड़ों दिव्य जीवन वालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं है और कल भी नहीं होगा। बहुत नाम हो जाए, बहुत पैसा हो जाए, यह बहुत खतरनाक आकांक्षा है।
एक निर्मल संत थे, प्रतिष्ठा इतनी हो गई उनकी कि उन्हें कहीं लोग चैन लेने नहीं देते थे, जहां जाएं वहीं हजार लोग आ जाते। पहले तो उन्होंने प्रयास किया कि हमारी प्रतिष्ठा हो, लेकिन लोग जब लोग चीटें जैसे लग गए, तो कष्ट होने लगा। यदि कोई परिपूर्ण व सही चिंतन का संत नहीं है, तो उसके ऐश्वर्यों को चाटने के लिए संसारी लोग लग जाते हैं। जैसे चींटे चीनी को चाट लेते हैं, तभी छोड़ते हैं। बर्बाद कर देते हैं। भगवान भी तत्पर हैं, लेकिन हर कोई लीला धारी नहीं हो सकता। जो अपने को ही कर्ता मानता है, वह लीलाधारी नहीं हो सकता। लीला की व्याख्या है कि जिसकी क्रिया में कर्तत्वा अभिमान न हो और फल की क़ामना न हो। ऐसा कौन होगा? लोग विषयों में तत्पर हैं, विषयों की प्रमुखता स्वीकार करते हैं, उसी अनुसार अपने जीवन का संचालन करते हैं, सारा जीवन इसी में बीत जाता है। भोग में ही बीत गया। तन्द्रा में ही बीत गया। भोग करने में भोगी समाप्त हो गया। भोग समाप्त नहीं हुआ, भोगी समाप्त हो गया।
भगवान कितने दयालु हैं, वे हमें आकर्षित करना चाहते हैं। इसके लिए नाचते भी हैं। गोपियों के कहने से भगवान नाचते हैं। छाछ पीने के लिए भी नाचते हैं। गायों को चराते हैं, वस्त्रों का हरण करते हैं, तो भगवान यह सब लीला हमारे कल्याण के लिए करते हैं।
क्रमशः
-इंदौर में चातुर्मास काल में श्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर दिए गए प्रवचन क़ा प्रारंभ-