Sunday 14 April 2013

जगदगुरु साक्षात्कार भाग - ३

प्रश्न : अक्सर धर्म, समूह में जा कर कर्मकाण्ड का रूप ले लेता है। वह अनुष्ठानों के चक्कर में सामूहिक आरतियों और नमाजों में बदल जाता है। अनुदान और जड़ हो जाता है। तो धर्म अन्तर्मन की साधना है या बाहर का शोर और झांकी?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : भगवान की आराधना की कई विधियां हैं - पूजन की, अर्चन की। कोई ध्यान करता है, वह पूजन है, कोई नाम लेता है, उसका वह भी पूजन है। उनकी परिक्रमा करता है और उनके गुणों का गान करता है, यह भी पूजन है। श्रवणं कीर्तन विश्व स्मरणं। ये सब स्वरूप हैं आराधना के। उसी में यह भी स्वरूप है कि हम भगवान को स्नान करा दें, माला पहना दें। सूक्ष्मता में जाने के लिए स्थूलता से जाना पड़ता है। जैसे आप यहां आए हैं, तो हमने आपको थोड़ा-सा प्रसाद दिलवाया है, लेकिन उसके पहले और बाद में ज्यादातर वाणी से, भावना से, मन से भी आपका सत्कार और आत्मीय भाव का प्रदर्शन कर रहा हूं। इसीलिए मूर्ति आराधना को नकारा नहीं जा सकता।
प्रश्न : मेरा आशय भारी तादाद में बैठायी जा रही मूर्तियों और उनके जल विसर्जन . . .
स्वामी राममनरेशाचार्य जी : भले आदमी! लोगों की संख्या पर तो नियंत्रण नहीं कर रहे हो, मूर्तियों की चिन्ता आपको सता रही है - एक सवाल अरब लोग हो गए हैं हम। सरकार ने अरबों, खरबों लगा दिया, लोग खा गए और परिवान नियोजन धरा रह गया। क्या और समस्याएं नहीं हैं? उन पर नियंत्रण नहीं, आराध्य देव की मूर्ति बनी तो जल की समस्या बढ़ गई क्या? आप देखिए कि जो मांइयां  एक बाल्टी में काम चला लेती थीं, वो पच्चीस बाल्टियों का उपयोग करती हैं। इतने कपड़े हैं लोगों के पास जैसे प्रदर्शनी का सामान हो। इन संसाधनों के साथ बेपरवाही का, अपव्यय का तथ्य तो है ही इसलिए ये जो पक्ष है स्थूल दृष्टि का है। मैं तो चाह रहा हूं कि हर आदमी के घर में मूर्ति हो। बिड़ला जी का एक बड़ा घराना है उनके घर में इतना सुन्दर मंदिर है, जितना हमारे मठ में नहीं है। और परिवार के प्रत्येक सदस्य के अपने ठाकुर जी हैं, जब हमारी पत्नी, हमारी बेटी, अल्मारी हमारी, अटैची हमारी तो ठाकुर जी भी हमारे अपने। विसर्जन की कौन-सी समस्या है? नहीं विसर्जन करेंगे, तो उनकी जो प्राण प्रतिष्ठा वाली रीति है, उसी रीति से बोल दिया कि गच्छ-गच्छ। जहां से आए हैं, वहीं जाइए और एक जगह रख दिया प्रतिमा को। आज जो अपव्यय की फूहड़ झांकी दिखाई पड़ रही है, क्या ये सुखद है? महंगे-महंगे कपड़े बण्डलों में आ रहे हैं, बड़े-बड़े क्लब बन रहे हैं, बढ़ रहे हैं। रात्रि में नाचने वाले नर्तक बढ़ रहे हैं, पीने और नाचने वालों की तादाद ज्यादा है या मूर्तियों की? इसी प्रसंग में मैंने एक बार दिल्ली के पुरुषोत्तम अग्रवाल जी से उनके यह कहने पर कि धार्मिक आयोजनों में बहुत पैसे खर्च किए जा रहे हैं और उनकी उपलब्धि नहीं है - कहा था कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में जितने पैसे खर्च होते हैं, उतने पूरे तीर्थ में नहीं होते। भले आदमी और उसका उत्पादन क्या है? कौन-सा वैज्ञानिक तैयार किया आपने? और उस कैम्पस में क्या हो रहा है? उसकी भी खबर हमको है।
प्रश्न : सादगी और मितव्ययिता का आदर्श तो गांधी जी ने भी रखा था?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : वो होनी चाहिए, किन्तु भगवान को भोग तो लगे। आपकी जो आर्थिक स्थिति है, जो सामाजिक और वैचारिक स्थिति है, उसके आधार पर आराधना होनी चाहिए। क्या राय है?
प्रश्न : आप प्रतिवर्ष संस्कृत के विद्वान को एक बड़ी मानद राशि एवं अन्य उपहार देकर सम्मानित करते हैं, इसके पीछे आपकी क्या मंशा है?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : इसके पीछे सद्विचार, सद्इच्छा, सद्चरित्र, रचनाधर्मिता, राष्ट्रीयबोध और मानवधर्मिता का सम्मान है। ये सम्मान उन्हीं लोगों को दिया जाता है, जिन्होंने अपने जीवन को तथ्यों के संग्रह में लगाया, श्रेष्ठ मूल्यों को, विचारों को अपने जीवन में उतारा, बड़े पैमाने पर लिखा-पढ़ा और जिनका आचार और धन दोनों पवित्र हैं। आचार, शुचिता और अर्थ राम आधार के दृढ़ स्तंभ हैं। यह इसलिए नहीं करता कि बहुत पैसा है मेरा पास या मेरा नाम छपे अखबारों में, न-न, यह कतई नहीं। यह श्रेष्ठ मूल्यों का सम्मान है, जिनसे समाज में सही वातावरण तैयार होगा और विद्वान सर्वत्र पूज्यन्ते की भी बात तो है ही। यह विडम्बना है कि जितने लोग सत्ता की जय-जयकार करते हैं, उतने लोग विद्वान की जय-जयकार नहीं करते। जबकि राजा से अधिक स्थायी जीवन विद्वान का होता है। अकबर का क्या जीवन है? बाबर का? शाहजहां का तो रोड ही है न? लेकिन तुलसीदास का? रामचरितमानस की जरूरत तो बाथरूम में भी है। तो विद्वान जितना समाज को देता है, वह अपना सम्पूर्ण दे देता है। जबकि वणिक वृत्ति आमदनी का कुछ प्रतिशत ही देती है और ये सम्मान आजकल के पुरस्कारों की भांति नहीं है, जो सम्बन्ध, भाईवाद, जाति और क्षेत्र को देखकर दिए जाते हैं। पहले ही तय हो जाता है- वो सब यहां नहीं है। पूरे देश में किसी आश्रम की ओर से मिलने वाला एक लाख रुपए का पहला पुरस्कार है यह। आज तक जिन लोगों को दिया गया है, उनका कोई जोड़ नहीं है।
क्रमश:

No comments:

Post a Comment