Saturday 14 September 2013

भाई-भाव बचाइए, भाग - 2

भातृत्व तो पुराना सम्बंध हो गया। माता-पिता को यदि छोड़ दिया जाए, तो दुनिया में जितने भी हमारे सम्बंधी बनते हैं, वे भातृत्व के बाद ही होते हैं, चाहे पत्नी के साथ सम्बंध हो, बच्चों के साथ सम्बंध हो या सखा या मित्र के साथ सम्बंध हो। ये सम्बंध तो सयाने होने पर बनते हैं, किन्तु भाई से सम्बंध तो जन्म के बाद ही बन जाता है। अत: यह सम्बंध बहुत सशक्त है। यह इतना प्रशस्त सम्बंध रहा है कि दुनिया में सभी लोग मिल सकते हैं, किन्तु भाई नहीं मिल सकता। बड़े और उपयोगी सम्बंध के रूप में इसकी मान्यता रही है। अभी जो बाधित हो रहा है, तमाम कुसंस्कारों से ग्रसित हो रहा है। तमाम तरह के जो समाज, व्यक्ति, परिवार को लांछित करने वाली परिस्थितियां हैं, वो भातृत्व को लांछित कर रही हैं, तो इसका मुख्य कारण है कि हमारा जीवन भोग और काम प्रधान हो गया है। अर्थ और काम के लिए ही हम सम्बंधों का निर्वाह करने लगे हैं। धन और काम की प्रधानता होने के कारण भातृत्व बाधित हो रहा है। लांछित होता जा रहा है। सम्बंध निर्वाहकों में, सम्बंध संस्थापकों में दुनिया के सबसे श्रेष्ठ प्राणी मनुष्य के रूप में राम जी अपने सम्पूर्ण जीवन में उन सभी सम्बंधों को जो सकारात्मक हैं, जो समाज की मांग हैं, जो समाज को बढ़ाने वाले हैं, उन सभी को राम जी ने चरम पर पहुंचाया। भावों की ऊंचाई तक सम्बंधों को ले गए। सम्बंधों के मामले में राम जी का चरित्र अनुकरणीय हो गया। राम जी ने जैसे अपने भातृत्व का निर्वाह किया, वह तो अद्भुत है। भातृत्व को कभी लांछित नहीं होने दिया, तो इसका सबसे पहला कारण है कि भगवान राम ने धन और काम को महत्व नहीं दिया। यदि धन और अपनी इच्छा को महत्व देते, तो लड़ाई करनी चाहिए थी, भरत के लिए राजगद्दी छोडक़र जंगल जाने की आवश्यकता नहीं थी। हम लोग कहा करते हैं, अयोध्या उसे कहते हैं, जहां अर्थ और काम के लिए लड़ाई नहीं होती है। अयोध्या का मतलब - जहां युद्ध नहीं होते, धन के लिए या भोग के लिए। संसार में लड़ाई का मूल क्या है? कहा जाता है कि धर्म के लिए भी लड़ाई होती है, किन्तु मेरा मानना है और दूसरे चिंतकों का भी मानना है कि लड़ाइयों का मूल धन और भोग है। यहां तक कि जंगली जानवर भी खाने के लिए और भोग के लिए ही लड़ते हैं, हाथी भी लड़ते हैं, बाघ और कुत्ते बिल्ली भी।
राम का भातृत्व अत्यंत उदात्त है, कैसा अतुलनीय उन्होंने अपना जीवन बनाया, कैसे अनुपम ढंग से उन्होंने उसका पालन किया, इसका मुख्य कारण है कि उन्होंने कभी धन और भोग को महत्व नहीं दिया। धन को महत्व देते, तो उन्हें कहना चाहिए था कि यह हमारे पिताजी की आज्ञा नहीं है, उनके अनुकूल भावना नहीं है, दशरथ जी तो राम जी के जंगल जाने की बात पर डांवाडोल हो गए हैं, वे अपने धर्म से अलग होना चाहते हैं। सभी रामायणों में यह बात लिखित है। दशरथ जी ने कई बार दोहराया कि मैं भले नरक चला जाऊं, मेरी जो भी दुर्गति हो, किन्तु मेरा राम मेरी आंखों से ओझल न हो। किन्तु राम जी अपने पिता दशरथ जी से कहते हैं कि जब आपने माता कैकेयी को दो वरदान मांगने के लिए संकल्प किया था कि आप कभी भी मांग लेना, तो अभी यदि वे मांगती हैं, तो उनका मांगना उचित है, जब आप उनको देंगे, तो हमें पिता-पुत्र की भावना का निर्वाह करते हुए, पिता के लिए सम्पूर्ण समर्पित होते हुए वरदान के परिपालन के लिए मुझे जंगल जाना ही चाहिए और भरत को राजा होना चाहिए, इसमें अधर्म कहां से आ गया। इसमें मैं नहीं जाऊं, यह बात कहां से आ गई, यदि आप वरदान नहीं देते हैं, तो आपका धर्म जाता है और मैं नहीं जाता हूं जंगल, तो मेरा पुत्रत्व लांछित होता है।
शास्त्र में लिखा है कि अपने पिता को 'पुम्Ó नामक नरक में नहीं जाने दे, वही पुत्र होता है। यदि धन को महत्व देते श्री राम, भोग को महत्व देते, तो जंगल कभी नहीं जाते। अयोध्या में तो धन, ऐश्वर्य सबकुछ प्राप्त था, जंगल में ये सब प्राप्त नहीं था। ऐसी समृद्धशाली-खुशहाल अयोध्या को छोडक़र, जिसे लेकर कुबेर भी लज्जित होते हैं, इन्द्र भी सिहरन को प्राप्त करते हैं, उस राज्य को छोडक़र जंगल जाने की बात नहीं होती। संसार में जबसे धन और भोग को लोग ज्यादा महत्व देने लगे हैं, तबसे भातृत्व लांछित होने लगा है। राम जी ने धन और भोग को महत्व नहीं दिया, वे जंगल में चले गए, उन्होंने कभी मन में भी नहीं आने दिया कि यह षड्यंत्र है और इस षड्यंत्र में भरत की भागीदारी है। अपनी सम्पूर्ण चर्चा में चाहे सामने हुई हो या पीछे हुई हो, कभी उन्होंने यह नहीं कहा कि कैकेयी दोषी हैं, मैं बड़ा लडक़ा हूं, मुझे राजा होना चाहिए। भरत को कोई अधिकार नहीं है। किन्तु राम जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा।
आज भातृत्व का स्वरूप गंदा होता जा रहा है, इसका अर्थ है कि हमारे जो दूसरे सम्बंधी हैं, वो सभी लोग धर्म और मोक्ष को या राष्ट्र को, विकास को या परिवार विकास को, अपने व्यक्तित्व के दूसरे सकारात्मक विकास को महत्व नहीं देकर सम्बंध को महत्व नहीं देकर, केवल भोग और अर्थ को महत्व देने लगे हैं। इसलिए ये सम्बंध लंाछित हो रहा है।

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