Saturday 21 September 2013

भाई-भाव बचाइए - भाग : 5

राम जी ने अपने काल में न जाने कितने लोगों को सखा बनाया, मैं बार-बार यह कहा करता हूं। सुग्रीव उनको अपना स्वामी मानते हैं, विभीषण उनको स्वामी मानते हैं, लेकिन भगवान ने हनुमान जी को भी सखा कहा। हनुमान जी तो दास भक्ति में सबसे बड़े माने जाते हैं, किन्तु जब अयोध्या में लौटे, तो भगवान ने गुरु वशिष्ठ जी से कहा :-ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।
मैं कहता हूं कि राम राज्य का जो संस्थापक सम्बंध है, वह सखा भाव है। सबको भगवान सखा कहते हैं और उसी तरह से व्यवहार करते हैं। सुग्रीव के साथ भी सखा भाव, जबकि सुग्रीव स्वयं को सेवक ही मानते हैं, जामवंत, नल, नील सब सखा। सखा सम्बंध को राम जी ने खूब फैलाया। राम जी निरंतर कहते हैं, ये सभी लोग हमारे सखा हैं। यदि इन सम्बंधों को इससे भी आगे महत्व देना हो और विकसित करना हो, और श्रेष्ठता के साथ प्रकट करना हो, तो राम जी कहते हैं :-
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।
ये सब सखा मेरे भरत भाई के समान हैं, लक्ष्मण भाई के समान हैं। सखा सम्बंध की संस्थापना के लिए रामजी ने खूब प्रयास किए। उनका सबसे प्रिय और हार्दिक आकर्षण का केन्द्र सम्बंध सखा भाव ही है। तभी वो अपने सभी सेवकों को भी सखा कह रहे हैं, लंका से अयोध्या में जाने पर, किन्तु उसे भी तुलना देनी हो, उपमान खड़ा करना हो, तो यही कहते हैं, ये हमें भरत के समान प्रिय हैं।
भरत जी के लिए एक जगह लिखा है, जब अयोध्या से गए राम जी को मनाने के लिए। देखिए, इसके लिए होने वाली वार्ता में कितना दम है। सभी लोगों ने भरत जी को मनाया कि आप राजा बन जाइए, राम जी भी नहीं हैं, पिताजी भी नहीं हैं, अयोध्या की बड़ी दुर्दशा है, सभी लोग विकल हैं राम विरह में। लगता नहीं है कि लोग रह पाएंगे, सारी अयोध्या, सारी प्रजा ही नष्ट हो जाएगी, तो भरत जी ने कहा, मैं नहीं रुक सकता, मेरे पूरे शरीर में जलन हो रही है, हृदय में जलन हो रही है, जबतक भाई को नहीं मिलूंगा, उनका दर्शन नहीं करूंगा, उनके भावों को नहीं पढ़ूंगा, तब तक मैं जीवन नहीं जी सकता, मैं जलकर राख हो जाऊंगा। आप भले ही कह रहे हैं, राजा बनिए, किन्तु मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि जिस आदमी के कारण राम जी जंगल चले गए, उस आदमी को राजा बनाकर आपको क्या मिलेगा, मैं लांछित हूं, चिंतित हूं, कहीं से मेरा जीवन सम्मानजनक नहीं है, श्रेष्ठ नहीं है, कहीं से भी मेरा जीवन प्रशस्त नहीं है।
लिखा है तुलसीदास जी ने : भरत जी बोल रहे हैं :-
कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।
किन्तु भरत जी के साथ राम जी ने ऐसा व्यवहार किया कि उनके मन में जो संदेह की ज्वाला थी, जो उनके मन में विभ्रम की भावना थी, मन में जो कुत्सित विचार आ रहे थे कि भाई राम मेरे बारे में ऐसा सोचते होंगे, वैसा सोचते होंगे। राम जी ने भरत जी को इतना संतुष्ट किया कि जहां भरत जी राजा बनने के नाम पर चिढ़ रहे थे, भाग खड़े हो रहे थे, झुंझला रहे थे, वहां उन्होंने चरण पादुका जी देकर उन्हें राजा बनने के लिए तैयार कर लिया। लिखा है रामायण में, जब भरत जी वन में राम जी के पास गए, तो राम जी को दूर से ही यह कहकर कि त्राहिमाम-त्राहिमाम-त्राहिमाम, मेरी रक्षा करें, मेरी रक्षा करें,... दूर से ही प्रणाम करते हुए निकट आए और राम जी के चरणों में गिर गए, तब राम जी ने भरत को बरबस उठाया और गले से लगा लिया। जो मिलन हुआ, तुलसीदास जी ने लिखा है कि उस मिलन को देखकर जितने भी संस्कारी जीव थे, उनको तो समाधि लग ही गई, वे संसार को भूल ही गए, समाधिस्थ हो गए, किन्तु जो अपान थे, वे भी समाधिस्थ हो गए। उनका गलत चित्त भी समाधि में बाधक नहीं बना।
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।
अपवित्र जीवन वाले भी समाधिस्थ हो गए। अरे ऐसा मिलन! जिस व्यक्ति के कारण राम जी को जंगल आना पड़ा, उस व्यक्ति से ऐसे मिल रहे हैं! जैसे सागर के समान सागर ही है, हिमालय के समान हिमालय ही है, ठीक उसी तरह से भरत और राम मिलन के समान केवल राम और भरत का मिलन ही है, दूसरा हो ही नहीं सकता।

क्रमश:

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