Tuesday 24 September 2013

भाई-भाव बचाइए

भाग : 6
आज सम्बंध निर्वाह के लिए बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। बहुत बड़ा मन होना चाहिए। अत्यंत उदार मन होना चाहिए, नहीं तो यदि भरत को कहते राम जी कि मैं तो राजा बनने वाला था, तुम्हारे कारण ही मुझे जंगल आना पड़ा, तो मेरा पूर्ण विश्वास है कि भरत जी जीते नहीं, वहीं तड़प-तड़प करके राम जी के सामने ही शरीर को स्वाहा कर देते, जीवन को राख बना देते। राम जी को पूर्ण विश्वास के साथ लगता है कि मेरा भरत गलत नहीं है, यदि वैसा है, तो भी मेरा भाई ही है।
एक ऐसा उदाहरण मैं देना चाहता हूं, जिससे आपको लगेगा, वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि राम जी जब लंका विजय से लौटे, तो प्रयाग-इलाहाबाद से हनुमान जी को भेजा कि जाओ, भरत जी को सूचित करो कि मैं आ रहा हूं। लंका से मैं प्रयाग आ गया हूं, अब अयोध्या आना है मुझे।
बड़ी मनोवैज्ञानिक और स्वाभाविक बात का उल्लेख किया है महर्षि वाल्मीकि ने, राम जी ने क्या खूब कहा हनुमान जी को, पता करो पहले जाकर कि भरत १४ वर्षों से राज भार संभाल रहे हैं, कहीं उनके मन में राज्य-आसक्ति तो नहीं उत्पन्न हो गई कि मैं ही राजा रहता, तो बहुत अच्छा होता। किसी को राज्य देने की क्या जरूरत है, दूसरे रामायण में यह नहीं लिखा है, लेकिन वाल्मीकि बहुत स्वाभाविक बात कहते हैं, गद्दी मिल जाने के बाद क्या उसे छोडऩे की इच्छा होती है? प्रभुता पाकर किसमें मद नहीं आता। किस में यह भाव नहीं आता कि मैं ही भोग करूं, यह भाव हर आदमी में आ जाता है। तो राम जी ने कहा कि पता कर लेना, यदि भरत का मन हो गया हो, तो अपना भाई ही तो है, मैं राजा रहूं या भरत रहें, इसमें क्या समस्या है। अपने १४ साल जंगल में रहे, अपने जीवन भर जंगल में रहेंगे, किन्तु राजा तो भरत रहें, हमें कोई समस्या नहीं है। हम धीरे से यहीं से लौट जाएंगे, मुझे भरत से लडऩा नहीं है। कोई अपनों से लड़ता है क्या, लड़ाई तो दूसरों से होती है अपने अधिकार के लिए। जो मैं हूं, वही भरत हैं।
तो जाकर हनुमान जी ने पता किया, भरत जी की भावनाओं को देखा। भरत जी तो एक-एक क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जैसे बस जीवन इसी के लिए टिका हुआ हूं, निर्धारित समय पर यदि राम नहीं आते हैं, तो भरत का जीवन अत्यंत कठिन है। भरत का जो समर्पण है, जो राम जी के लिए अगाध श्रद्धा का भाव है, विश्वास का भाव है। वह अतुलनीय है।
हनुमान जी भरत जी से मिलकर लौट गए और राम जी से कहा, चलिए, आप जल्दी चलिए अयोध्या। अब देर मत कीजिए।
एक और प्रकरण सुनाना चाहूंगा। जब भगवान ने बाली को मारा, तो बाली ने पूछा कि आपने हमें क्यों मारा, आप कौन होते हैं मारने वाले, राम जी ने उत्तर दिया कि तुम अपने भाई की पत्नी को ही रख लिए हो, ऐसा रघुवंश के विधान में या राज्य में नहीं होता। राम जी को कोई संकोच नहीं लगा, इसलिए वे कहते हैं कि हमारे भाई भरत राजा हैं अभी, रघुवंश शिरोमणि है हमारे भरत, मैं उन्हीं के अनुसार जंगल में रघुवंशियों के नियम-कानून, रक्षा, उसका परिपालन और जो उसका विरोध करता है, उसको दंड देने के लिए अधिकृत हूं।
अर्थात बड़ा भाई, राम जैसा महान व्यक्ति, अपने छोटे भाई का अनुचर बनकर उसकी आज्ञा का पालक बनकर जीवन बिता रहा है, क्या बात है! ऐसे ही भातृत्व बनता है। 
आजकल तो आदमी भाई की बड़ाई सुन ले, तो खून खौलने लगता है, ईष्र्या की भावना पनपने लगती है, राम जी ने कहा, मैं भरत की आज्ञा के अनुसार रघुवंश के नियमों का परिपालक हूं, राजा मेरा भाई भरत है और मैं भरत की ओर से नियुक्त हूं जंगल में। यह पिता जी ने कहा था, किन्तु अब भरत राजा हैं। जो रघुवंशियों के संविधान की अवमानना करेगा, जो उसको नहीं मानेगा, जो परिपालन नहीं करेगा, उसको जो दंड रधुवंश के संविधान में है, वह मैं दूंगा। हमारे यहां कोई नियम नहीं है कि भाई जीवित हो और उसकी पत्नी को बड़ा भाई अपनी पत्नी बना ले, इसलिए मैंने आपको मारा, कहीं से कोई गलत काम नहीं किया। यह गहराई से चिंतन की बात है, भरत का आज्ञापालक राम जी स्वयं को मान रहे हैं। जैसे राजा का आज्ञाकारी सेवक होता है, उस तरह से स्वयं को मान रहे हैं।
यहां तक लिखा है कि अयोध्या जी में चरण पादुका को रखकर भरत जी राज्य का संचालन करते हैं। नंदीग्राम में व्रत, नियम, संयम के साथ रहते हैं, कोई आज्ञा लेनी हो, तो चरण पादुका जी से लेते हैं, उसका पूजन भी करते हैं और वैसा जीवन व्यतीत करते हैं, जैसा राम जी वन में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तपस्वी जीवन, वनवासी जीवन, उदासीन जीवन।
क्रमश:

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