Wednesday 25 September 2013

सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए

(महाराज का एक प्रवचन - युवाओं की स्थिति और बढती अनैतिकता पर)
सबसे पहले युवाओं को यह समझ लेना चाहिए कि सच्चा सुख और सम्मान किसमें है। आज जीवन के संदर्भ में युवाओं की सोच बदली है। हर युवा सोच रहा है कि मेरी शिक्षा अच्छी होनी चाहिए, मेरा स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए और मेरा प्रभाव भी बढऩा चाहिए। आज के समय में पढऩे वालों की संख्या और पढऩे वालों का स्तर, दोनों बढ़ा है। युवाओं को यह बात समझ में आ गई है कि अच्छी शिक्षा होगी, तभी हम संपन्न और प्रतिष्ठित हो सकेंगे, सुखमय जीवन बिता सकेंगे। बहुत से युवा व्यायाम व शरीर बनाने में लगे हैं, वे समझ गए हैं कि शरीर स्वस्थ रहेगा, तभी हम जीवन का उपभोग कर सकेंगे, इसलिए जगह-जगह व्यायामशालाएं खुल रही हैं। पहले वाले बच्चों की तुलना में आज के बच्चे शरीर पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। इसके साथ ही, यह बात भी उनके मन में आनी चाहिए कि धन की जो वासना है, केवल उसे ही अगर तुष्ट करने में लगे रहेंंगे, तो परिवार, समाज, देश या संसार में कभी भी बड़े आदमी नहीं हो सकेंगे। यह बात शुरू से ही बच्चों और युवाओं के मन में बैठानी चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए कि केवल धन कमाना ही सबकुछ नहीं है। नि:संदेह, बच्चे पढऩे में जितनी दिलचस्पी अब लेते हैं, उतनी पहले नहीं लेते थे। समय बदल गया है, अब युवा जितना अपना ध्यान रखते हैं, उतना पहले नहीं रखते थे, जिस तरह से ये संस्कार उनमें विकसित हुए हैं, उसी तरह से उनमें अच्छाई का संस्कार भी विकसित होना चाहिए। अच्छाई हो, चरित्र हो। शिक्षा होगी, पैसा होगा, स्वास्थ्य होगा, लेकिन सारा कुछ तब धरा रह जाएगा, यदि चरित्र अच्छा नहीं होगा। अच्छा चरित्र नहीं होगा, तो हम कभी विशिष्ट जीवन को प्राप्त नहीं कर पाएंगे।
अभी जो घर का वातावरण है, उसमें धन की उपलब्धता बढ़ी है। बच्चों को जितना पैसा नहीं देना चाहिए, उतना दिया जा रहा है। छोटी उम्र में ज्यादा पैसे मिलने लगे हैं। मेरे गुरुजी, जिस गुरु से मेरी दीक्षा हुई थी, यह कहते थे, 'छोटी आयु में आदमी पैसे से बिगड़ता है।Ó जब तक मैं छोटा था, उन्होंने मेरे पास दो पैसे नहीं रहने दिए। जिस वस्तु की मुझे आवश्यकता पड़ती थी, गुरुजी ही मुझे दिला देते थे। आज भी अपने देश में जो अच्छे परिवार हैं, उनमें बच्चों को जो वस्तु चाहिए, वह परिवार के बड़े ही उन्हें देते हैं, पैसा नहीं देते, जब कपड़ा चाहिए, कपड़ा देते हैं, जब पुस्तक-कॉपी, भोजन, मनोरंजन, जो भी चाहिए, बड़े ही सोच-समझकर देते हैं। बच्चों को पैसे की जरूरत नहीं पड़ती, उनका पैसों से सीधे कोई सरोकार नहीं रहता है। ऐसे में, वे पैसे द्वारा उत्पन्न होने वाली विकृतियों से बच जाते हैं। 
कोई संदेह नहीं, मध्यवर्गीय परिवारों के पास भी पैसा खूब हो गया है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हमें बच्चों के पालन-पोषण के प्रति सावधान रहना चाहिए। जैसे हम बच्चों को पटाखे देते हैं, राइफल तो नहीं देते, बच्चों को चाकू और ब्लेड से भी बचाते हैं। हम चाहते हैं कि बच्चे सुरक्षित रहें, लेकिन कहीं न कहीं पैसा बच्चों और युवाओं के जीवन को असुरक्षित बना रहा है। इस पर अभिभावकों को ध्यान देना चाहिए। जो अभिभावक बच्चों को पॉकेट मनी या पैसे देते हैं और खर्च का हिसाब नहीं लेते, वो गलत करते हैं। बच्चों से अवश्य पूछना चाहिए कि कहां कितना खर्च किया।
बच्चों और युवाओं को लेकर चिंता बढ़ी है, वासना बढ़ रही है, तो विकृति भी बढ़ रही है। मेरा मानना है, मोबाइल की आवश्यकता बच्चों को नहीं है। मोबाइल पर नियंत्रण होना चाहिए। अभिभावक जांच तो करें कि कहां-कहां बात हुई, कहीं बच्चा गलत राह पर तो नहीं है। ऑफिसों में बड़े लोगों पर भी निगरानी रखी जाती है कि वे जहां-तहां फोन न करें। अनावश्यक फोन करने में समय बर्बाद होता है, बिल में पैसे बर्बाद होते हैं, सम्मान भी प्रभावित होता है। ऑफिस में तो फोन और बिल पर नियंत्रण है, लेकिन घर में नहीं है। बच्चों को मोबाइल फोन दे दिया है, कई बच्चे रात्रि में भी जहां चाहे, बात कर रहे हैं और अभिभावक कुछ पूछ भी नहीं रहे हैं। घर में खुलेपन का वातावरण बढ़ा है, अनुशासन घटा है। 
क्रमशः

No comments:

Post a Comment