Wednesday 16 November 2016

श्रीमठ में कार्तिक पूर्णिमा पर हजारा प्रज्ज्वलित करते जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी




सती अनसूया जी : पति भक्ति अर्थात महाशक्ति

समापन भाग 
तुलसीदास जी ने लिखा है - अनसूया जी कह रही हैं - 
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।
तन, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए बस एक ही धर्म, एक ही व्रत, एक ही नियम है। अनसूया जी ने पतिव्रता नारियों के चार स्वरूपों का वर्णन भी किया। 
पतिव्रता का सबसे श्रेष्ठ स्वरूप इस प्रकार है - श्रेष्ठतम पतिव्रता के मन में एक दृढ़ विश्वास होता है, दृढ़ निश्चय होता है कि मेरा पति संसार में अकेला पुरुष है और बाकी सब नारियां हैं। मेरे लिए पूर्ण रूप से समर्पित रहने वाला वही है, जिसे माता-पिता ने दिया है, बाकी पुरुष सब नारियां। श्रेष्ठ पतिव्रता के लिए पति के अलावा कोई दूसरा जीव पुरुष होता ही नहीं है। 
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहूँ आन पुरुष जग नाहीं।।
पति ही जगत का अकेला पुरुष है, दूसरा कोई पुरुष नहीं है। रामानंद संप्रदाय में लोग इस तरह की उपासना करते हैं, भगवान को पति और अपने को पत्नी मानकर। भगवान ही पति हैं और बाकी संसार के सभी जीव पत्नियां हैं। यह कांता भाव रामानंद संप्रदाय में प्रचलित है। दूसरा जब कोई पुरुष ही नहीं है मान्यता में, तो कहां से विकार आएगा?ï इससे उनका पतिव्रत सुदृढृ बनता है। यह सबसे अच्छा तरीका है कि स्त्री अपने पति को ही पुरुष माने। भटकाव को आधार देने की आवश्यकता ही नहीं है। 
दूसरे प्रकार की पतिव्रता जो होती हैं - जिन्हें मध्यम पतिव्रता कहा अनसूया जी ने। ऐसी पतिव्रता स्त्रियां दूसरे पुरुषों को देखती तो हैं, लेकिन पुत्र, भाई और पिता के रूप में देखती हैं। छोटा है, तो पुत्र के रूप में, समान है, तो भाई के रूप में और बड़ा है, तो पिता के रूप में देखती हैं। ये भी पति के लिए संपूर्ण समर्पित रहती हैं। ऐसा भी अगर सोचा जाए, तो तमाम तरह की मर्यादाओं के उल्लंघन से बचा जा सकता है। 
तीसरी पतिव्रता वो हैं - उन्हें अत्यंत नीच कहा गया है - जो स्त्रियां धर्म का विचार करके, कुल का विचार करके, दूसरे पुरुष पर मन नहीं लगाती हैं। इस तरह से जो स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करती हैं, वे निकृष्ट हैं। 
चौथी पतिव्रता के लिए कहा - अवसर नहीं मिलने के कारण जो पतिव्रता बनी रहती हैं, भय के कारण पति के साथ जुड़ी रहती हैं, उनके विचारों में क्षमता नहीं है, उनके विचारों में ऊंचाई नहीं है। ऐसी स्त्रियां अधम पतिव्रता हैं। 
इन चारों पतिव्रताओं का वर्णन अनसूया जी ने जानकी जी के लिए किया और आशीर्वाद दिया कि जो पति को ठगती हैं, दूसरे पति के साथ विहार करती हैं, उन्हें घोर नरक यात्रा होती है। क्षणभंगुर सुख के लिए जो अपने पति की उपेक्षा कर देती हैं, उन्हें बाद में सौ करोड़ जन्म तक नर्क की प्राप्ति होती है। कोई अन्य श्रम करने की कोई जरूरत नहीं है, नारी को पतिव्रत धर्म से परमपद की प्राप्ति हो सकती है। 
उन्होंने कहा कि नारी का जीवन बहुत ही अपावन है, अपावन मतलब - पावन कहते हैं पवित्र को, नारियां तभी पावन अवस्था को प्राप्त करती हैं, जब पति की सेवा करती हैं। दुनिया का कोई भी संसाधन, विज्ञान स्त्री जीवन को उत्कर्ष देने वाला नहीं है, जितना पतिव्रत धर्म है। 
नारी की सुंदरता के लिए, नारी के सुख के लिए, पति के सेवन के लिए पति के प्रति समर्पण अति महत्वपूर्ण है। यदि समर्पण होता है, तो परिवार ही नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र को मजबूती मिलती है। इस भाव में मानव को पहुंचना ही चाहिए। 
जानकी जी को अंतिम आशीर्वाद देते हुए अनसूया जी ने कहा कि जो स्त्रियां तुम्हारे नाम का स्मरण करेंगी और पतिव्रत का पालन करेंगी, वो अपने पतिव्रत के पालन में सफल होंगी। स्त्रियों को यह बात बतलाई जानी चाहिए कि जानकी जी के नाम का स्मरण करें, क्योंकि आशीर्वाद है, उनके नाम से पतिव्रत धर्म के पालन में बल मिलेगा। 
अनेक महिलाएं हैं, जिनका जीवन कोसते-कोसते बीत जाता है, उन्हें कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन जो संपूर्ण जीवन अपने पति के लिए जीती हैं, ऐसी महिलाएं अगर सीता जी के नाम का स्मरण करती हैं, तो बहुत लाभ होता है। अनसूया जी ने हृदय की गहराई से आशीर्वाद दिया। पतिव्रत की सफलता ही परिवार की सफलता है, राज्य-राष्ट्र की सफलता है। पत्नी में यदि कोई खोटापन है, वह भी धीरे-धीरे दूर हो जाएगा। खोटेपन से जो हानि हो रही है, वो दूर हो जाएगी। यह वैदिक सनातन धर्म की अद्भुत स्थापना है। जीवन को सर्वविधि सुन्दर बनाने के लिए स्त्रियों के समर्पण से बढक़र कोई उपाय नहीं है।  
मेरा आग्रह है कि अनसूया जी का नाम भी महिलाएं जपा करें। धन्य हैं अनसूया और धन्य हैं सीता, जिन्होंने हर परिस्थिति में समर्पित होकर अपने पति के साथ जीवन बिताया। वे अपने जीवन के लिए ही नहीं, पूरे संसार के लिए मानक हैं। तमाम तरह के जो उपकरण बने हैं दुनिया में, लोग जिन्हें शक्तिशाली मान रहे हैं, वो कभी समाज के दूषण को मिटाने वाले नहीं हैं, कितना भी ग्रहों पर लोग चले जाएं, संसाधन बढ़ जाएं, जीवन के संसाधन बढ़ जाएं, लेकिन जब तक पतिव्रता स्त्रियां पैदा नहीं होंगी, तब तक समाज का वह स्वरूप कभी नहीं आएगा, जिसकी कल्पना ऋषियों ने की थी। पतिव्रता की शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है, इसको कोई माप नहीं सकता, यह शुभ ही शुभ को देने वाली है। जो हर तरह के श्रेष्ठ भावों को देने वाली है। 
जगदंबा की जय हो, अनसूया माता की जय हो, सीता माता की जय हो... इससे केवल महिलाओं का सुधार नहीं होगा। संपूर्ण मानवता का उद्धार हो जाएगा। 
जय श्री राम

सती अनसूया जी : पति भक्ति अर्थात महाशक्ति


भाग - ४
यहां भगवान ने सीता जी को अनसूया जी से सत्संग करने के लिए प्रेरित किया। भगवान को पता था कि अनसूया जी आदर्श महिला हैं। राम जी ने कहा कि जाओ आप, अनसूया जी को प्रणाम करो, आशीर्वाद लो। 
अनसूया जी के पास जाकर सीता जी ने अत्यंत विनम्रता से समर्पित भावना से सीता जी को बार-बार प्रणाम किया, बार-बार चरणों में स्वयं को नवाया और उनसे आशीर्वाद की आकांक्षा की। सीता जी के विनीत भाव को देखकर अनसूया जी बहुत प्रसन्न हुईं और अपने समीप में बैठाया। एक महिला के पास दूसरी आए, तो बड़ी महिला आशीर्वाद देती है। अनसूया जी ने भी सीता जी को आशीर्वाद दिया। साथ ही, दिव्य आभूषण और दिव्य वस्त्र सीता जी को प्रदान किए। विशेषता यह थी कि ये वस्त्र और आभूषण कभी पुराने नहीं होंगे, उनमें कभी गंदगी नहीं आएगी। अनसूया जी को पता था कि राम जी वनवास के लिए निकले हैं, तपस्वी वेष है। सीता जी कहां, कैसे वस्त्र बदलेंगी, कहां आभूषण बदलेंगी, कैसे बदलेंगी। इसलिए अनसूया जी ने सीता जो को आशीर्वाद स्वरूप दिव्य वस्त्र-आभूषण दिए। 
लिखा है तुलसीदास जी ने -
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई।।
दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए।।
अनसूया जी अपने हाथों से सीता को दिव्य वस्त्र, आभूषण पहनाए। एक और भी काम किया अनसूया जी ने, संक्षेप में जानकी जी को नारी धर्म का व्याख्यान किया कि नारी को कैसे रहना चाहिए। सबसे पहली बात नारी धर्म का व्याख्यान करते हुए कहा कि माता, पिता, भाई, जितने भी सम्बंधी हैं स्त्री के, वे सब सीमित हैं, माता-पिता, भाई इत्यादि लडक़ी को कोई भी वह नहीं दे सकता, जो पति दे सकता है। 
तुलसीदास जी ने लिखा है -
मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी।।
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही।।
अनसूया जी ने ही यह उपेदश किया था - 
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।
एक लडक़ी को माता-पिता क्या दे सकते हैं, पढ़ा सकते हैं, वस्त्र दे सकते हैं, दान-दहेज दे सकते हैं, यह सीमित है, इसकी एक सीमा है, अमिट देने की क्षमता पति में ही होती थी। हे जानकी, कोई सीमा नहीं है, जिसका कोई माप नहीं हो सकता, जिसको तौला नहीं जा सकता है, जिसे दायरे में नहीं लाया जा सकता, वह सुख पति ही दे सकता है। दूसरे लोग पत्नी को उतना सुख नहीं दे सकते। 
जिस तरह की देखभाल पति करता है, उस तरह की देखभाल माता-पिता भाई नहीं कर सकते। पति के साथ लगकर पत्नी अपने परलोक को भी सुधार सकती है। पति जो धर्म करेगा, उसमें आधे की भागीदार पत्नी होगी। जो परम फल अमिट फल कहलाता है, उस फल को देने की क्षमता पति के साथ लगकर ही प्राप्त हो सकती है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण उपदेश है। पिता कभी अपनी बेटी के सभी रहस्यों के जानकार नहीं हो सकते, लेकिन पति अपनी पत्नी के सभी रहस्यों का जानकार होता है। 
पति सब कुछ दे सकता है, अमित दानि भर्ता बयदेही। जो पालन-पोषण करता है, उसे भर्ता कहा जाता है। पति की सेवा करके नारी सब कुछ प्राप्त कर सकती है। लोक की सभी विभूतियों को लोक के सभी फलों को प्राप्त कर सकती है, इसलिए अनसूया जी ने कहा कि किसी भी अवस्था में पति का परित्याग नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह असीमित दान देने वाला है। भले ही पति गरीब हो, बीमार हो, नेत्र ज्योति न हो, अपंग हो, सभी प्रकार की दीनता से युक्त होने के बावजूद पति की सेवा में ही पत्नी को सब कुछ मिलेगा। दूसरों से कुछ नहीं मिलेगा, जो है, वह भी चला जाएगा। 
आजकल असंख्य नारियों का मन भटकता है अपने पति से, अपने पति की दरिद्रता, दीनहीनता, रोग आदि को देखकर भटकता है, भटकने से कुछ नहीं मिलता, बल्कि जो मिला हुआ है, वह भी छिन जाता है। इसलिए पति को किसी भी तरह से उपेक्षित नहीं करना चाहिए। यदि थोड़ा भी मन भटकता है, तो उससे अनेक तरह की यातनाएं प्राप्त होती हैं। सब कुछ मानकर पति का ही साथ तन-मन से देना चाहिए। 
इसके बाद चार प्रकार की पतिव्रता स्त्रियों का उल्लेख किया अनसूया जी ने। स्त्रियों को इन बातों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। आज के लोग समझ रहे हैं कि हम बहुत होशियार हैं, एक जगह बंधन में रहने की क्या जरूरत है, जबकि यह बंधन नहीं है, यह तो बड़े लाभ देने वाला है। जब संयम-बंधन में रहेंगे, तभी हम जीवन का सही मूल्यांकन कर सकेंगे। हम सम्बंध जरूर बढ़ाएं, लेकिन मर्यादा से सम्बंध को बढ़ाना चाहिए, जिससे हमारे जीवन का विकास हो, यह नहीं कि जो मिले उसे पत्नी मान लें, जो मिले उसे पति मान लें। सम्बंधों की गरिमा बनाए रखने के लिए बंधन जरूरी हैं। 
क्रमश: 

सती अनसूया जी : पति भक्ति अर्थात महाशक्ति


भाग - ३
पतिव्रता कुछ भी कर सकती है। जो भी करने योग्य है या नहीं करने योग्य है, वह जैसा चाहे, वैसा बना दे। यदि स्त्री पतिव्रत का पालन करती है, जो सर्वश्रेष्ठ भावों को समर्पित है, उसकी भावना कहीं नहीं भटकती। पतिव्रता नारी में बहुत शक्ति होती है। जीवन की दूसरी समस्याओं के समाधान में वे संभव हैं। जैसे ईश्वर कुछ भी कर लेते हैं, जैसे वह संप्रभुता संपन्न हैं, ठीक उसी तरह से पतिव्रता महिलाएं भी कुछ भी कर सकती हैं। 
स्त्रियों का पहले सीमित क्षेत्र था, लेकिन अब विस्तृत क्षेत्र हो गया है, अब वे कार्यालय भी जाती हैं। घर से बाहर निकलकर कई तरह के काम करने लगी हैं। बाहर निकलने से उनकी व्यस्तता बढ़ी, उनकी आत्मनिर्भरता बढ़ी, उनकी पहचान बढ़ी है, उनका धन बढ़ा है। उनका मनोरंजन बढ़ा है, लेकिन इसमें बहुत बड़ी विडंबना उत्पन्न हो गई है, बाहर निकलने से पतिव्रता धर्म बहुत असक्त हुआ है। पहले एक दायरे में रहना होता था, उसमें माता-पिता, बच्चों-पति की सेवा अतिथि सेवा का काम एक दायरे में ही होते थे। सीमित दायरे में रहने से पतिव्रता धर्म का पालन करने में स्त्रियों को काफी सुविधा होती थी, काफी बल मिलता था, लेकिन उन्मुक्त जीवन जब से स्त्रियों का शुरू हुआ है, अनेक तरह के काराबारों में वे सक्रिय हुई हैं, तब से पतिव्रता यज्ञ का अनुष्ठान कमजोर पड़ा है, जिससे संपूर्ण परिवार, समाज, जाति खतरे में पड़ रही है। वैसे ज्यादातर लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसा क्यों हो रहा है। बच्चों को कौन संभाले, संस्कार कौन दे, पति कार्यालय गए, पत्नी कार्यालय गई, कौन संस्कार दे? समाज का चिंतन कई बड़े चिंतकों ने किया है, भारत ने अपने प्रभुत्व को गंवा दिया। भारत का प्रभुत्व छोटा रह गया। देश की शक्ति के मूल में एक बड़ी भूमिका है पति और पत्नी के परस्पर विश्वास की, सम्बंधों की। अनसूया जी के बारे में चिंतन करते हुए इन बातों पर ध्यान जा रहा है। 
यदि पत्नी पूर्ण रूप से पति के लिए समर्पित होती है, तो समाज, परिवार, जाति, मानवता को अनेक प्रकार की कमजोरियों से बचाया जा सकता है। अब किसी का किसी के लिए संपूर्ण समर्पण नहीं है। 
अनसूया जी अत्रि जी के साथ परलोक सुधार के लिए ही आई थीं। संतति को जन्म देने, संग्रहण करना, उनका संकल्प नहीं था। संकल्प यह था कि आज से दोनों एक हो गए, जैसे एक हाथ में पीड़ा होती है, तो संपूर्ण शरीर की पीड़ा मानी जाती है, ठीक उसी तरह से पति-पत्नी, दोनों एक हो जाते हैं। एक ही के दो भाग, एक पुरुष भाग और दूसरा नारी भाग। परिवार, समाज में पत्नी बनकर जब कोई कन्या आती थी, तो पति का बल बढ़ जाता है। एक नई शक्ति के रूप में पति प्रकट होता है। सनातन धर्म में पतिव्रता का पालन अत्यंत महत्वपूर्ण रूप से स्वीकार किया गया है। एक ही पति से अपने मन, तन को जोडक़र रखना आजकल कम हो रहा है। जब जो अच्छा लगे, वैसा करना चाहिए, क्या यह सोच जीवन के सभी क्षेत्रों में संभव है? जब मन करे, वैज्ञानिक बन जाएं, डॉक्टर बन जाएं, राजनेता बन जाएं, ऐसा तो संभव नहीं है। जहां जो समर्पित हो गया, वहां वह क्षेत्र उसका अपना हो गया। जहां जो लगा हुआ है, पूर्ण समर्पण से लगे, तो उसकी शक्ति बढ़ जाती है।
पतिव्रता धर्म का पालन विश्वव्यापी धर्म है। ऋषियों-महर्षियों ने पतिव्रता का जो प्रतिपादन किया, उसके प्रयोग के लिए लोगों को समझाया, लोगों को इसका अनुरक्त बनाया, यह केवल ब्राह्मणों के लिए नहीं था, यह केवल भारत भूमि के लिए नहीं था, दुनिया के हर व्यक्ति के लिए था। 
पति तभी कामयाब होता है, जब उसके पीछे पत्नी की शक्ति पूरी तरह से लगती है। जब दोनों एक दूसरे के लिए, एक दूसरे के हित के लिए प्रयासरत रहते हैं। पतन के लिए नहीं, उद्धार के लिए प्रयासरत रहते हैं। कहीं भी अपूर्ण समर्पण से उपलब्यिां प्राप्त नहीं होतीं। संपूर्ण समर्पण से ही बड़ी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं। 
अनसूया जी पति के प्रति अपने समर्पण के कारण बहुत बड़ी शक्ति में बदल गईं। जैसे सूर्य संपूर्ण संसार को दिन में प्रकाशित करता है, चंद्रमा रात्रि में प्रकाशित करता है, ठीक उसी तरह से अनसूया जी का जो जीवन है, पूरे संसार को पतिव्रता धर्म के लिए प्रेरित करने के लिए आदर्श है। जब वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बालक बना सकती हैं, तो कितनी अतुलनीय शक्ति उनके पास है। 
आज समर्पण के अभाव में ही समाज भ्रष्ट हो रहा है, समाज का सही मूल्यांकन घट रहा है। सभी महिलाओं को अनसूया जी से प्रेरणा लेकर, बल लेकर अपने जीवन को सुधारना चाहिए। आज महिलाएं जीवन की कमजोरी को दूर करने के लिए यहां-वहां भटकती हैं, कई तरह के लोगों से जुड़ती हैं, किन्तु उन्हें खास कुछ प्राप्त नहीं होता। उन्हें उत्तम चरित्र प्राप्त नहीं होता। 
भगवान जब चित्रकूट में रह रहे थे। वहां काफी लोगों का आना-जाना हो गया था। भगवान ने सोचा कि इस स्थल को भी छोड़ देना चाहिए, कहीं और दूरी पर रहना चाहिए। भगवान ने महर्षि अत्रि के आश्रम में जाकर उन्हें प्रमाण किया, उनका सम्मान किया, आशीर्वाद लिया और उनसे प्रेरणा भी ली। आप आज्ञा दीजिए कि आगे बढूं, ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करूं। अत्रि जी ने भी राम जी का बहुत आदर किया। उन्होंने भगवान की एक लंबी वंदना की और कहा कि आपकी शुचिता बनी रहे, आपकी कृपा बनी रहे। 
क्रमश: 

सती अनसूया जी : पति भक्ति अर्थात महाशक्ति

जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी


भाग - २
हमारे वैदिक सनातन धर्म ने इस धारणा को बहुत पुष्ट किया। संसार का हर पति चाहता है कि उसकी पत्नी केवल उसकी पत्नी रहे। मेरे ही विकास के लिए और मुझे ही सुख देने के लिए मेरा ही सहयोग करे। जाति, संप्रदाय, नस्ल, देश कोई भी हो, पूरी दुनिया के पुरुष यही सोचते हैं। 
वैदिक सनातन धर्म ने पतिव्रता स्त्रियों को बहुत महत्व दिया, उसका लाभ भी बताया और पतिव्रता न होने की हानि का भी वर्णन किया। यह भी बताया कि कैसे पतिव्रता रहा जा सकता है। इस देश में यह प्रथा बहुत पुरानी, अनादि है। काफी कोशिश करके समाज के अच्छे लोग पत्नियों को पतिव्रता, पति परायणा बनाने का उपक्रम करते रहते हैं। पतिव्रता स्त्रियों में अनसूया जी का स्थान सबसे ऊंचा है। उनका पूरा जीवन ही अपने पति महर्षि अत्रि जी के लिए अर्पित था। उनके मन में किसी दूसरे के लिए कोई भाव आया ही नहीं। कभी उन्होंने अपनी दृष्टि या दूसरी इन्द्रीयों को दूसरी ओर नहीं लगाया। कभी लोभ नहीं आया, किसी पुरुष को उन्होंने काम की भावना से नहीं देखा, उन्होंने अपने पति देव को ही अपना सबकुछ माना। उन्हें ही परिवार माना, राज्य व देश माना, संपूर्ण संसार उन्हीं को माना। पतिव्रता होने के लिए पत्नी का जीवन सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए। महर्षि अत्रि को भी अपनी पत्नी पर बड़ा अभिमान था। 
अनेक तरह की कथाएं अनसूया जी को लेकर कही जाती हैं। एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी अनसूया जी ने बालक बना दिया था। हुआ ऐसा कि सत्संग की परंपरा है ही, सत्संग में विभिन्न विषयों की चर्चा होती है। एक बार ब्रह्मा की पत्नी ब्रह्माणी, विष्णु की पत्नी लक्ष्मी और महेश की पत्नी गौरी परस्पर चर्चा कर रही थीं कि संसार में सबसे बड़ी पतिव्रता कौन है। सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता किसको माना जाए? बहुत देर तक वे चर्चा करती रहीं, पतिव्रत धर्म की चर्चा करती रहीं, दोष निकालती रहीं। अंत में उन्होंने निर्णय किया आज के काल में अत्रि जी की पत्नी अनसूया जी सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता हैं। उनसे बड़ी पतिव्रता कोई नहीं है, ऐसा ब्रह्माणी, लक्ष्मी गौरी ने तय किया। यह बात ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक पहुंची। चर्चा के बारे में बताया, उसके परिणाम के बारे में बताया। तीनों देवताओं ने कहा कि आप लोगों ने तय कर लिया है, तो परीक्षण भी होना चाहिए। हम तीनों जाते हैं ब्राह्मण वेष बनाकर उनकी परीक्षा लेते हैं। 
तीनों देवता महर्षि अत्रि जी के आश्रम पहुंच गए। तब अत्रि जी किसी विशेष परिस्थिति के कारण आश्रम के बाहर थे। आश्रम में ब्राह्मणों को देखकर अनसूया जी ने आदर, सत्कार किया। तीनों ब्राह्मणों ने कहा कि हम लोग आपके यहां आए हैं, अतिथि सत्कार होना चाहिए, भीक्षा भी हम लोग लेंगे, लेकिन हमारी शर्त है कि आप भिक्षा देने के पहले जितने वस्त्रों को आपने धारण कर रखा है, उन सभी को अपने से अलग रखकर हम लोगों को भीक्षा दें, तभी हम आपसे भिक्षा लेंगे। ऐसा ब्राह्मण वेषधारी ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने कहा, धर्म संकट उत्पन्न हो गया। अनसूया जी के सामने विकट परिस्थिति आ गई, उन्होंने भगवान का ध्यान किया, मन में ही कह रही हैं कि यदि पति के समान किसी दूसरे को नहीं देखा हो, यदि किसी भी देवता को पति के समान न माना हो, यदि मैं पति की अराधना में ही लगी रही हूं, तो मेरे सतीत्व के प्रभाव से ये तीनों ब्राह्मण नवजात बच्चे हो जाएं। तत्काल तीनों ही नन्हें बच्चे होकर अनसूया जी की गोद में खेलने लगे। अद्भुत घटना हो गई। दुनिया का सृजन करने वाले, पालन करने वाले और संहार करने की क्षमता रखने वाले देवता, तीनों ही अनसूया जी की गोद में खेलने लगे। तीनों ही बच्चे हो गए। यह इतिहास की अकेली घटना है। जिसकी शक्ति से ब्रह्मा विष्णु, महेश बालक रूप धारण कर लें, तो अनुमान लगाइए कि अनसूया जी कितनी महान पतिव्रता रही होंगी। 
क्रमश: 

सती अनसूया जी : पति भक्ति अर्थात महाशक्ति

(जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से)

भारत में चरित्र निर्माण पर विशेष जोर रहा है। तमाम लोग जानते हैं कि अहिंसा का क्या महत्व है, फिर भी हिंसक हैं और सत्य का क्या महत्व है, फिर भी असत्य बोलते हैं। लोग अपने ज्ञान को परिपक्व नहीं बनाते हैं। ज्ञान को अपने चरित्र में नहीं उतारते हैं। कहा जाता है, धन नष्ट हुआ, तो कुछ नष्ट हुआ, शास्त्र नष्ट हुआ, तो कुछ ज्यादा नष्ट हुआ और यदि चरित्र नष्ट हुआ, तो सब कुछ नष्ट हो गया। भारत एक चरित्र प्रधान देश रहा है। यहां के संतों, गुरुओं, आचार्यों ने संपूर्ण संसार को ज्ञान का पाठ ही नहीं पढ़ाया, ज्ञान का परिपक्व स्वरूप भी संसार को दिया। इसके साथ ही अपने चरित्र में भी ज्ञान को उतारा। पूरी दुनिया को चरित्र की शिक्षा देने वाला देश भारत ही है। मनु ने भी यही कहा है। इसलिए भारत को विश्व गुरुत्व की प्राप्ति हुई।
भारत में पतिव्रता, पति परायणा महिलाओं का अस्तित्व का एक बहुत बड़ा पक्ष है, उन्नत अवस्था है। यदि कोई स्त्री है और पतिव्रता है, अपने पति को ही सब कुछ समझती है, उन्हीं के लिए आदर रखती है, स्नेह करती है और सेवा में समर्पित रहती है, उसके अतिरिक्त उसके जीवन का कोई और उद्देश्य नहीं होता, जो संपूर्ण बाहर और भीतर पति के लिए ही है, उसे पतिव्रता बोलते हैं। पति के लिए जिसके सभी व्रत हों, वो पतिव्रता। पति की प्रसन्नता, पति का विकास, पति से अनुकूलता, इसके लिए उन्हें पतिव्रता कहा जाता था। स्त्री जाति के संरक्षण, विकास, सुख के लिए, स्त्री जाति के जीवन की सार्थकता उत्तम चरित्र में है। 
शादी की जो प्रथा है, वह भी बहुत उपयोगी होती। यदि विवाह नहीं होता, तो सम्बंधों में बड़ा घृणित रूप हो जाता। जिसने विवाह की प्रथा को चलाया होगा, वह दुनिया का सबसे बड़ा आदमी होगा। वेद जो ईश्वर से प्राप्त होते हैं, जो संपूर्ण सृष्टि के नियामक हैं, उनके आधार पर भी जीवन परम ऊंचाई को प्राप्त कर सकता है। उसी क्रम में स्त्री जब शादी करके आती है, जब वह पत्नी बनती है, तो उसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है सबसे बड़ा अर्जन है, सबसे बड़ी औषधि व प्रेरणा है कि वह पतिव्रता धर्म का पालन करे। पति के लिए पूर्ण समर्पित हो जाए। अपने ज्ञान और अपनी इन्द्रीयों को किसी भी दूसरे उपक्रम में नहीं लगाए। समाज में जो आज कलह हो रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं, कई तरह की कुरीतियां आती हैं, दूषण होते हैं, वो सब समाप्त हो जाएं। पत्नी पतिव्रता होती है, तो उसका बल बढ़ता है। पतिव्रता महिलाओं के प्रति लोगों का भी सम्मान बहुत ज्यादा होता है। संदेह में आजकल कई तरह की बीमारियां पैदा हो जाती हैं, पत्नी यदि पति के लिए समर्पित न हो, तो परिवार टूट जाते हैं, परिवार टूटता है, तो समाज टूटता है। धीरे-धीरे ये टूटन पूरे राष्ट्र और मानवता को प्रभावित करता है। वस्तुत: दोनों एक दूसरे के पूरक बनकर जितना उत्पादन कर सकते हैं अपने लिए, परिवार, समाज, राज्य के लिए, उतना अलग-अलग होकर नहीं कर सकते। यह बहुत बड़ा दूषण समाज में है, पत्नी अगर पति के लिए पूर्ण समर्पित नहीं है, यदि मन उसका डोल रहा है, तो वह न अपने को सुख दे पाएगी, न पति को न परिवार को। भटकती रहेगी, भटकने की कोई सीमा नहीं है। आदमी रोज खाता है, लेकिन उसका कोई अंत नहीं है। कितने कपड़े हम पहन सकते हैं, सभी मकानों में हम ही रह लेंगे, तो कैसे होगा। अनावश्यक संपत्ति को अपने लिए आरक्षित करके हम कहीं के नहीं रहेंगे, सब संपत्ति मकान में ही खर्च हो जाएगी, फिर भी जीवन कठिन हो जाएगा, इसलिए संयम तो जरूरी है। 
क्रमश: 

Wednesday 9 November 2016

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

समापन भाग
किसी को सीखना हो, तो शबरी से सीखे कि कैसे श्रद्धा भक्ति के माध्यम से ऊंचाई को प्राप्त किया जा सकता है। शबरी ने सबकुछ पा लिया था, जब तक मानवता रहेगी, तब तक शबरी की चर्चा होती रहेगी। संपूर्ण संसार के मनुष्यों से अत्यंत आग्रह है कि सभी लोग ईश्वर सेवक बनें, संत सेवक बनें, गुरु सेवक बनें। मार्गदर्शन हम शबरी से प्राप्त करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, सभी मार्गदर्शन प्राप्त करें। किसी भी जाति, संप्रदाय के लिए शबरी प्रेरणा का स्रोत हैं। इस तरह के व्यक्तित्व संसार के इतिहास में दुर्लभ हैं। जो जहां है, वहीं से सेवा प्रस्तुत करे। जीवन की परम धन्यता को प्राप्त करेगा। 
ऐसे वैज्ञानिकों की जरूरत है, बहुत से सेवकों की जरूरत है, बहुत से नेताओं की जरूरत है। शबरी से सीखकर समाज उन्नत समाज होगा, एक दूसरे के काम आने वाला समाज होगा, राम राज्य वाला समाज होगा। 
शबरी को भगवान ने नवधा भक्ति का उपदेश दिया, जो आज भी संसार में भक्ति का श्रेष्ठतम उपदेश माना जाता है। यह भक्ति भागवत में भी बताई गई है। जगह-जगह इसका वर्णन है। भगवान ने शबरी के माध्यम से संसार को नवधा भक्ति उपदेश दिया, जैसे कृष्ण अवतार में भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। भगवान ने शबरी से कहा कि नवधा भक्ति में से किसी एक प्रकार की भक्ति भी किसी को हो जाए, तो उसका कल्याण हो जाएगा, लेकिन आपने तो नौ प्रकार से भक्ति की है। आपके कल्याण में कोई संदेह की बात ही नहीं है। तुम संपूर्ण भक्तिमय हो। राम जी ने बहुत उपदेश दिए होंगे, ३३ हजार साल का उनका काल है, लेकिन उन्होंने जो उपदेश शबरी को दिया, वह अतुलनीय है, यह परम सौभाग्य है कि साधन विहीन शबरी को भक्ति क ा उपदेश मिला। राम जी सबसे साधन संपन्न हैं, वह सबसे साधन विहीन शबरी को उपदेश दे रहे हैं। 
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा। 
अर्थात पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंग से प्रेम। तीसरी भक्ति है, अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा। चौथी है - कपट छोडकर मेरे गुणों का गान करना। पांचवीं है - दृढ़ विश्वास के साथ मेरे मंत्र अर्थात राम नाम का जाप। छठी है - इन्द्रियों का निग्रह, अच्छा चरित्र, संत आचरण करना। सातवीं है - संसार को मुझमें ओतप्रोत देखना, संतों को मुझसे भी अधिक मानना। आठवीं है - जो मिल जाए, उसी में संतोष करना, दूसरे के दोष न देखना। नौवीं भक्ति है - सरलता और सबके साथ कपटरहित व्यवहार करना, मुझमें भरोसा रखना और मन में विषाद न लाना। 
नवधा भक्ति में शबरी ऊंचाई को प्राप्त हुईं। जब शबरी ने राम जी से कहा था कि मैं तो अधम हूं, मन्दबुद्धि हूं, तब राम जी ने कहा, 
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता। मानउं एक भगति कर नाता।।
हे भामिनी, मेरी बात सुन, मैं तो केवल एक ही भक्ति का ही सम्बंध रखता हूं। 
भगवान तो भक्त के वश में हो जाते हैं, भगवान केवल भक्ति भाव देखते हैं, ऐसे भगवान के लिए शबरी ने स्वयं को अर्पित कर दिया और संसार के लिए आदर्श बन गईं।
जय श्री राम

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

भाग - ४
एक और चर्चा होती है कि शबरी ने चख-चखकर राम जी को बेर खिलाए। राम जी का यह स्वभाव है, जो भी माताएं, गुरु माताएं उन्हें खिलाती थीं, वे बहुत रुचि के साथ खाते थे, किन्तु शबरी के हाथ से खाने के बाद ईश्वर ने जब भी किसी माता के हाथों कुछ खाया, तो प्रशंसा तो जरूर की, किन्तु धीरे से यह भी कह दिया कि जो स्वाद शबरी के बेर में मिला था, वह फिर कभी नहीं मिला। ईश्वर की जो यह पक्षपाती भावना है, वह भक्त को परम ऊंचाई देने वाली है।
शबरी द्वारा किए गए स्वागत-सत्कार के बाद राम जी ने कहा था, मैं आपके गुरु मतंग ऋषि जी का आश्रम देखना चाहता हूं, जहां वे बच्चों को पढ़ाते, पूजन, अर्चन करते थे। शबरी उन्हें आश्रम में जगह-जगह ले गईं, आश्रम का हर कक्ष दिखाया। वहां सब कुछ व्यवस्थित था, अध्ययन की जगह, ग्रंथ, सबकुछ वैसे ही था, जैसे ऋषि छोड़ गए थे। भगवान बड़े प्रसन्न हुए, शबरी ने सबकुछ ठीक से सजा रखा था। भगवान को चार वेदों को जानने वाला उतना प्रिय नहीं होता, जितना भक्त भाव वाला चांडाल प्रिय होता है। जो भगवान के लिए समर्पित है, वह भगवान को प्रिय है। 
भगवान बैठे हैं, भक्त में वह धन, रूप नहीं देख रहे, केवल श्रद्धा देख रहे हैं। शबरी ने अनुमति मांगी, आपका दर्शन हो गया, आज मेरा जीवन परिपूर्ण हुआ। भगवान अब कृपा करें, मैं अब जाऊं। गुरु चरणों की सेवा करूं। राम ने कहा, ऐसा ही हो। शबरी भगवान के देखते-देखते ही दिव्यधाम चली गईं। ऐसा वाल्मीकि रामायण में लिखा है।
शबरी से जुड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक तालाब में कीड़े पड़ गए थे, लोगों ने राम जी से कहा कि आप इसे निर्मल बना दीजिए, 
भगवान ने कहा कि यह पाप का फल है। किससे यह पाप हुआ कि पानी दूषित हो गया? 
लोग नहीं बतला पाए। तब राम जी ने कहा, चिंतन करने से मेरे मन में ऐसा आ रहा है कि कभी रास्ता साफ कर रही थीं शबरी। एक संत ने शबरी को नहीं देखा, शबरी ने उन्हें देखा और किनारे खड़ी हो गईं, स्नान करके जब वह लौटने लगे, तो शबरी का कपड़ा उनके चरणों में गिर गया, वे बड़े नाराज हुए, कौन है दुष्टा, रास्ते में आ गई, दूषित कर दिया, अब फिर स्नान करना पड़ेगा। 
दुबारा स्नान के लिए वह संत नदी नहीं गए, उन्होंने इसी तालाब में स्नान किया। उसी समय से इसका जल कीड़ों से भर गया। 
लोगों ने पूछा, इसका समाधान क्या हो सकता है बताइए?
तो राम जी ने कहा, यदि शबरी के चरणों से धोकर इसमें जल डाला जाए, तो कीड़े समाप्त हो जाएंगे। 
लोगों ने ऐसा ही किया और तालाब के कीड़े समाप्त हो गए। बहुत बड़ी घटना हो गई। सभी प्रकार से निर्बल साधन विहिन व्यक्ति के माध्यम से संत सेवा की महिमा से ईश्वर सेवा की महिमा से शबरी शक्तिशाली हो गईं। तालाब को निर्मलता प्राप्त हो गई। इस घटना से दण्डकारण्य के संपूर्ण ऋषि समाज में बहुत अच्छा संदेश गया। कई लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि हम तो जान ही नहीं रहे थे कि ये महिला इतनी प्रभावशाली हैं। ईश्वर तो वस्तुत: दीनदयाल हैं, उन्होंने शबरी के रूप में भक्त को पहचान लिया। 
चिंतन की बात है कि लाखों वर्ष हो गए, त्रेता की बात है राम जी जब हुए थे, लेकिन शबरी की चर्चा आज भी ताजा है। कितना परिवर्तन आया संसार में, कितने तरह के लोग आए, गायक, कलाकार, सुनने वाले, लिखने वाले, बोलने वाले, सब लोग सिमट गए, बड़ी जातियों में जन्मे लोग सिमट गए लेकिन शबरी आज भी संसार को प्रकाशित कर रही हैं। शबरी का एक ही रहस्य है कि उन्होंने श्रेष्ठ भावों के साथ संतों की सेवा की। कहीं से कोई छल नहीं, अभिमान नहीं, दिखावा नहीं। 
क्रमश:

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

भाग - ३
जब बाकी ऋषियों को पता चला कि राम जी आए हैं, तो वे आए और कहने लगे कि आप हमारे यहां नहीं आए, यहां आ गए। राम जी ने उत्तर दिया कि दण्डकारण्य में मैंने कई लोगों से पूछा कि सबसे अच्छा भक्त कौन है, तो सबने शबरी का नाम लिया। मुझे भक्त बहुत प्रिय हैं। जो मुझे प्रेम करता है तन-मन से, उसे मैं सबसे ज्यादा चाहता है, शबरी ऐसी ही हैं। 
एक विशेषता है, शबरी ने सदा छिपकर सेवा की। अपने यहां वैदिक सनातन धर्म में कहा जाता है कि दान का हाथ दिखना नहीं चाहिए कि किसने दान दिया। वैसे ही सेवा भी छिपकर की जानी चाहिए, सेवा का विज्ञापन बड़ा नहीं होना चाहिए, दिखावटीपना नहीं हो। हमने किसी की सेवा की है या सम्मान किया है, तो दिखना नहीं चाहिए। उसका प्रचार नहीं होना चाहिए, यही काम शबरी करती थीं। दो दिन नहीं, चार दिन नहीं, पूरे जीवन ऐसा ही किया। 
शबरी के पिताजी राजा थे, शबरी जब विवाह लायक हुईं, तो विवाह के आयोजन के क्रम में वर वगैरह देखने के बाद, शादी की तैयारी होने लगी, दरवाजे पर तैयारी होने लगी, शबरी ने पूछा कि यह क्या हो रहा है, लोगों ने बताया कि तुम्हारी शादी होने वाली है, तो शबरी का हृदय तो आध्यात्मिक था, पूर्व जन्म के संस्कार भी रहे होंगे, शबरी में ईश्वर के लिए चाह, ललक थी, इच्छा थी कि ईश्वर व संतों के लिए जीवन को अर्पित करें, इसके अलावा कोई उद्देश्य नहीं था। उन्होंने धीरे से संकल्प किया कि मैं घर पर नहीं रहूंगी। वह जंगल में चली गईं, फिर लौटकर नहीं आईं। बहुत से लोगों ने मनाया, किन्तु सांसारिक जीवन में शबरी का मन नहीं माना। शबर जाति की थीं, भील जाति, इसलिए नाम शबरी हो गया। जैसे फल ग्रहण करने वाले को फलाहारी बोलते हैं, ठीक उसी तरह से वे शबर जाति की थीं, इसलिए शबरी कहा गया। मतंग ऋषि के आश्रम में रहीं, वे आश्रम में कुछ भी लेकर नहीं गई थीं। आज लोक प्रतिष्ठा के जो कारण होते हैं, वो शबरी के पास नहीं थे। धन का स्पर्श ही नहीं किया पूरे जीवन में। आज का साधु आते ही धन संग्रह में लग जाता है। 
गृहस्थ जीवन ही नहीं, आश्रम के लिए भी धन चाहिए, लेकिन आश्रम का उद्देश्य धन नहीं है। वह तो अध्ययन, अध्यापन, जप, तप की जगह है। उतना ही धन प्राप्त करें, जो भक्त सहर्ष देकर जाएं। 
शबरी के पास न धन, न रूप, न कला, न विद्या, लेकिन सेवा है। हमें सोचना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं, वह यदि किसी की समस्या का समाधान है, निवारक है, किसी के लिए वरदान स्वरूप है, तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा, हमारी पहचान सुस्पष्ट हो जाएगी, फिर हमें जो चाहिए, वह मिलेगा। सेवा के इस पहलू को समझना चाहिए। अपने जीवन में सेवा भाव को उतारना चाहिए, समाज, परिवार, लोक का उत्कर्ष तभी होगा। 
ईश्वर के प्राप्ति में जो परम लाभ है, उसमें शुरू से सहिष्णुता होनी चाहिए। संत सेवा से, साधना से, शबरी को कोई शिकायत नहीं, कोई उलाहना नहीं, केवल श्रद्धा और प्रतीक्षा है। भक्ति में देने-देने की बात होती है, लेने की नहीं, रिटर्निंग गिफ्ट नहीं होता। सेवा में ही वह स्वयं का जीवन सार्थक मानता है। वाल्मीकि रामायण में लिखा है, भगवान ने शबरी से पूछा कि तुमने इतने व्रत-नियम किए, तुम्हें क्या प्राप्त हुआ, तो शबरी ने कहा कि आप प्राप्त हुए। 
दूसरा कोई होता, तो कई तरह की बातें करता, कहता कि गुरुजी ने मुझे बहुत मान दिया। तमाम लौकिक बातें करता, लेकिन शबरी ने स्पष्ट कहा, आप प्राप्त हुए। अंतिम उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति ही है। सच्चा फल तो यही है। संपूर्ण कल्याणकारी है आपका दर्शन। 
क्रमश:

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

भाग - २
पुरानी प्रथा है कि भगवान के साथ भगवान के भक्तों की भी सेवा करनी चाहिए। भागवत यानी जो भगवान के लिए अर्पित हैं, भागवतों की सेवा भी गुरु और ऋषियों के समान ही होनी चाहिए। शबरी का जो जीवन क्रम है, वह बड़ा ही प्रेरणादायक है, वह सैंकड़ों वर्षों तक प्रतिदिन दण्डकारण्य में जमा ऋषियों, संतों की सेवा करती रही थीं। विलक्षण प्रतिभा संपन्न थीं। जो रास्ता ऋषियों का होता था, उस रास्ते को बुहारने, साफ रखने, कंकड़ इत्यादि दूर करने, उस पर रेत बिछाने में उन्होंने अपना समय लगाया। और ऐसा करते हुए कभी अपने को प्रकट नहीं करना। प्रचारित नहीं करना। सुबह से पहले रात्रि में ही उठकर ये सारे काम करना, जिससे किसी को पता ही नहीं चलता था कि किसने यह किया है। सैंकड़ों वर्ष तक शबरी ऐसा करती रहीं। वह मतंग ऋषि के आश्रम में रहती थीं, मतंग ऋषि शबरी का महत्व समझते थे। उन्होंने शबरी को अद्भुत आध्यात्मिक आभा प्रदान की। ऐसा नहीं है कि वह धन लेकर आई थी, आज के साधु तो आते ही धन संग्रह में लग जाता है। बड़ा प्रश्न हो जाता है कि किसे संत समझा जाए। गुमराह अवस्था समाज के सामने खड़ी हो जाती है। किसे असली समझें, किसे नकली समझें। सनातन धर्म धन के बिना नहीं चल सकता। जीवन केवल खाने-पीने, वस्त्र, गृहस्थ जीवन के लिए ही नहीं है, आश्रम के लिए भी धन की जरूरत है। अनायास रूप से जो लोग धन दें, उसका उपयोग करें, मर्यादा से जीवन जीएं। ईश्वर की सेवा करें, जितना जरूरी हो, उतने ही धन का सेवन करें। शबरी के पास न रूप है, न जाति है, फिर भी उन्होंने पूर्णत: समर्पित होकर सेवा को अपना मार्ग बनाया। अब तो लोगों को विश्वास ही नहीं होगा कि सेवा करके अपने को सफल मानव बना सकते हैं, लेकिन शबरी ने ऐसा एक-दो दिन नहीं, सैंकड़ों वर्षों तक किया। उन्हें विश्वास था कि भगवान आएंगे। मतंग ऋषि पर विश्वास था। मतंग ऋषि ने स्वर्ग जाते हुए कहा था कि राम जी जरूर आएंगे, शबरी प्रतीक्षा करती रहीं। गुरु पर परम विश्वास था, इसी को श्रद्धा कहते हैं। शबरी को परम श्रद्धा थी कि राम जी जरूर आएंगे। गुरु की वाणी कभी मिथ्या नहीं होती। 
गुरु ने जाते हुए कहा था, तुम्हें आशीर्वाद देता हूं, राम जी अवतार लेने वाले हैं, तुम्हें यहां आकर मिलेंगे। 
गुरु ने यह नहीं कहा कि तुम बहुत सुन्दर बन जाओगी, नर्तकी बन जाओगी, धनवान बन जाओगी, रानी बन जाओगी। संत की मनोकामना पवित्र होती है। उनके आशीर्वाद में भी भलाई छिपी होती है। उन्होंने कहा, राम जी तुम्हें यहीं आकर मिलेंगे, राम जी के दर्शन के बाद तुम आ जाना, मेरे दिव्य धाम। शबरी लग गई तैयारी में कि राम जी आएंगे। 
उसने नियम बना लिया, दूर-दूर तक मार्ग को बुहारना, अच्छे फलों को एकत्र करना, अच्छे फूलों का चयन करके माला बनाना और अपने दरवाजे पर बैठकर प्रतीक्षा करना। उपवास करना, भोजन नहीं, फलाहार नहीं, ईश्वर की प्रतीक्षा करना। जब भी कोई आहट हो, तो लगता था कि राम जी आ गए, सुबह से शाम हो जाती थी, दिन बीत जाता था। आज नहीं आए, तो कल आएंगे, आज किसी दूसरे ऋषि के आश्रम चले गए होंगे, कल आएंगे। शबरी ने १२ वर्ष प्रतीक्षा की। श्रद्धा थी, गुरु ने कहा है। रोम-रोम से संयम, नियम से जीवन जीया, और रोम-रोम से भक्ति प्रवाहित होती थी। शबरी के बारे में लोग कहते हैं कि न रंग-रूप और गंदा कपड़ा, इत्यादि-इत्यादि, लेकिन जो लोग अध्यात्म की उपलब्धि को नहीं समझते हैं, वही ऐसी बातें करते हैं। जिसने अपना जीवन संतों की सेवा में लगाया हो, वह ऐसा ही रह जाएगा क्या, जैसे अपने घर से आने के समय शबरी थी। उसके शरीर से तो आभा निकल रही थी। श्री राम जी ने देखकर ही समझ लिया कि यह तो महान तपस्विनी है। शबरी ने भी भगवान को देखा। चरणों में गिर पड़ी, भक्ति-श्रद्धा से उपजे आंसुओं से पैरों को धोया। हृदयाकाश से सेवा की। भगवान ने उन्हें पूरा सम्मान दिया, हाथों से पकडक़र उठाया, शबरी ने भगवान की सेवा की। कितनी खुशी है कि सामने राम बैठे हैं। अनेक तरह से वंदना की, अनेक तरह के फूलों, मालाओं से सजाया। संसार में आनंद की कमी नहीं है, लेकिन ऐसा आनंद दुर्लभ है, जब ईश्वर सामने बैठे हों। यह भी कहा जाता है कि भगवान तो मिल जाते हैं, लेकिन ऐसे भक्त रोज नहीं मिलते। भगवान का तो काम है, ऐसे भक्तों का मान बढ़ाना। सारी वर्ण व्यवस्था, सारी आश्रम व्यवस्था ऊंचाई और निचाई का भाव, जो विभाजित करने वाली बातें हैं, सब टूट गईं। कहीं कोई विभाजक रेखा नहीं रही, सेवा ने सारे बंधनों, सीमाओं को पार कर लिया। शबरी सतर्क है। आज कोई अपराध नहीं हो जाए, भगवान मेरे आश्रम में आए हैं। 
क्रमश:

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

(जगदगुरु रामानंदाचार्य के प्रवचन के अंश)
संसार में नारियों का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन अलग-अलग देशों में अलग-अलग संप्रदायों, जातियों में अलग-अलग उनके स्वरूप हैं। भारतीय परंपराओं में नारी का महत्वपूर्ण स्थान है, फिर भी जो सम्मान पुरुष को प्राप्त हैं, जो अधिकार, अवसर प्राप्त हैं, वो नारी को नहीं हैं। यह जरूरी है कि नारी को बराबरी का दर्जा हर दृष्टि से मिले। आधुनिक समय में कई अधिकार मिलने के बावजूद आज नारियों को वह स्थान नहीं मिला है या वह सम्मान नहीं मिल सका है, जो पुरुषों को मिला हुआ है। सनातन धर्म में नारी को अध्यात्म में भी वह स्थान नहीं मिल पाता है, जो मिलना चाहिए, किन्तु शबरी अपवाद स्वरूप हैं, वो तमाम प्रचलित धाराओं को पीछे छोड़ देती हैं। वे पौराणिक इतिहास में अमिट छवि वाली भक्त हैं।
जगद्गुरु शंकराचार्य जी के मार्ग में नारी को संन्यास लेने का अधिकार नहीं दिया गया था। वहां केवल ब्राह्मण ही संन्यास का अधिकारी है, क्षत्रिय नहीं, वैश्य नहीं, शुद्र नहीं और नारी भी नहीं। वेदों के अध्ययन, अध्यापन में भी नारियां वर्जित रही थीं। उन्हें वेद पढऩे का अधिकार प्राप्त नहीं था। 
जो भक्ति मार्ग के संप्रदाय हैं, उनके अनुयायियों में ऐसी वर्जना नहीं रही है। साक्षात नारियों को लाभान्वित करने वाले भक्ति मार्ग में भी नारियां कम हैं। हालांकि भक्ति मार्ग में नारियों को बढ़ावा मिला। जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी के १२ शिष्यों में, जो परम तत्व तक पहुंचे, जिनका जीवन संतत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा, उनमें दो नारियां भी हैं। पद्मावती और सुरसरी। दोनों ही संतत्व के चरम में अवस्थित हैं। रामानंदाचार्य जी की उदारता इससे प्रमाणित होती है। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सनातन धर्म शुरू से ही उदार रहा है। जिन संतों और आचार्यों ने नारियों को आगे बढ़ाया, वो सभी धाराएं वैदिक सनातन धर्म में रही हैं। यह कोई अपनी ओर से किया गया कृत्य नहीं है। शबरी का जो उदाहरण है, वह सबसे बड़ा उदाहरण है। उनके जीवन क्रम को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे भगवान की सेवा करके पूजा करके, ध्यान करके, भगवान का नाम जप करके, भगवान की शक्तियों का ध्यान करके, समर्पण के अभाव, शरणागति के अभाव से ऊपर उठकर लोग जीवन को धन्य बनाते हैं, वैसे ही साधुओं और गुरुओं की सेवा से भी फल प्राप्त किया जा सकता है। मतंग ऋषि की वे शिष्या हैं, उसी सद्भाव और उत्साह के साथ समर्पण के साथ तत्कालीन दूसरे ऋषियों की भी उन्होंने सेवा की थी। भगवान के साथ भक्तों की सेवा भी होनी चाहिए। अध्यात्मिक जगत में सामाजिक जगत में अपने गुरु का सम्मान अनिवार्य है। हम दूसरे संतों और आचार्यों का भी सम्मान करें, इससे धर्म मजबूत होगा, उसका महत्व ऊंचाई को प्राप्त होगा। उसकी उपयोगिता को पंख लगेंगे, उसकी आयु भी बढ़ेगी। उसकी उदारता का बहुत विस्तार होगा। जैसे आजकल परिवार टूट रहे हैं, संयुक्त परिवार की परंपरा अब टूट रही है। पत्नी को पति का तो सम्मान करना ही है, लेकिन परिवार के दूसरे सदस्यों का भी वह ध्यान रखती है, पति के माता-पिता, पति की बुआ, पति के भाई-बहन, सबका वह ध्यान रखती है, इससे ही परिवार का आनंद, अस्मिता, परिवार की पहचान, परिवार का स्नेह, परिवार का धन, सब कुछ वृद्धि को प्राप्त होंगे। ऐसा नहीं होने से परिवार टूट रहे हैं। वैसे ही ऋषियों की सेवा जरूरी है। धर्म और अध्यात्म का स्वरूप विस्तृत होगा, तो बहुत दिनों तक उसका जीवन होगा। लंबी उसकी उपादेयता होगी, सार्थकता होगी। आज का जो साधु समाज है, गुरु समाज है, आचार्य समाज है, उसकी बहुत बड़ी भूमिका है। अपने शिष्यों को लोग दूसरे के काम नहीं आने देते हैं। हमारा शिष्य केवल हमारा ही प्रबंध करे, हमारा ही केवल आदर करे, हमें ही सब कुछ समझे, ऐसा वातावरण आज के गुरु लोग बनाने लगे हैं। अपने सम्मान को दूसरों को नहीं देते। आज साधु जगत में यह बड़ी कमी आ गई है। शबरी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए, जैसे शबरी ने मतंग ऋषि की सेवा की, उनको मान दिया, उनके प्रति आस्था व्यक्त की, वैसे ही दूसरे ऋषियों और संतों के लिए भी किया और कभी भी मतंग ऋषि ने उन्हें मना नहीं किया। 
क्रमश: