Sunday 16 April 2017

सब नर करहीं परस्पर प्रीती

पायो परम बिश्रामु
भाग - ३
संसार में तलवार के बल पर भी कई लोगों ने अपनी बात को स्थापित करने का प्रयास किया। जब वे अपने को सिद्ध मानने लगे, तो मक्का वालों को कहा कि आप लोग मेरी बात मानिए, मुझे ईश्वर दूत, प्रतिनिधि मानिए। वहां के लोगों ने कहा कि हम नहीं मानते कि आप ईश्वर का संदेश लेकर आए हैं, तो वे मदीना चले गए, वहां उन्होंने लोगों को अपने विचारों से सहमत किया। वह उनके मामा का गांव था, वहां से आकर उनके लोगों ने मक्का वालों को कहा कि जो बात मानेगा, वही मक्का में रहेगा। हमारी बात मानो।  
इधर तो राम जी सभा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मैंने जो कहा, उसमें जो भी गलत हो, वेद, शास्त्र और नीति विरुद्ध हो, तो आप मेरी बात को नहीं मानिए, कहीं से भी मैं हिंसक होकर, मनमानी करके मैं अपनी बात को आपसे मनवाना नहीं चाहता। 
लंका में भी उन्होंने तभी युद्ध किया, जब सारे अन्य प्रयास विफल हो गए। उनके संपूर्ण प्रयास सकारात्मक थे। आज दुनिया में तमाम तरह के ग्रंथ बनते हैं, लेकिन किसी की समकक्षता गोस्वामी जी के ग्रंथों से नहीं होती। वे केवल ईश्वर प्रेम को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। गोस्वामी जी ने वही किया, जो राम जी ने किया। 
कहा जाता है कि दुनिया में रामचरितमानस फिर बनने वाला नहीं है। कई लोग रामायण लिखकर गोस्वामी तुलसीदास बनना चाहते हैं, लेकिन यह संभव नहीं है। लेकिन लोगों के पास राम जी हों, तब तो ऐसे ग्रंथ की रचना हो। यदि राम जी मिल भी गए, तो तुलसीदास जी का मन कहां से लाएंगे। पूरी दुनिया में इस स्तर के महाकाव्य की रचना नहीं हो पाई। तुलसीदास जी की कोई तुलना नहीं है। उन जैसी प्रतिभा कहां से आएगी? 
इस दुनिया में जितने मांगलिक भाव हैं, उन सबका समुद्र ईश्वर माना जाता है। हमारा ईश्वर समुद्र है, उसके अवतार भी समुद्र हैं। यह केवल परोक्ष ज्ञान में नहीं है, अपरोक्ष ज्ञान में भी है। रावण को भी अपरोक्ष ज्ञान होता, तो वह महापाप नहीं करता। ज्ञान उसके हृदय में कभी नहीं उतरा। उसे केवल ऊपरी ज्ञान था। 
राम जी मनुष्यावतार हैं, वे सबकुछ जानते हैं, लेकिन उन्होंने ज्ञान का संग्रह किया। अपने चरित्र में ज्ञान को उतारा और अपने संपूर्ण अवतारकाल में लोगों को वह ज्ञान दिया, गुणों को प्रसारित किया, तभी रामराज्य की स्थापना हो पाई। सभी लोग उसी तरह से जीवन जीने लगे। रामराज्य में लोग केवल राम जी से ही प्रेम नहीं कर रहे हैं, उनमें परस्पर भी प्रीति है। 
सब नर करहीं परस्पर प्रीती
ईश्वर के लिए समर्पित होकर हम कर्म करें। इससे ऐसे समाज की रचना होती है, जो समाजवाद कभी नहीं कर सकता, लोकतांत्रिक पार्टियां ऐसा नहीं कर सकतीं। ईश्वर को नहीं मानने वाला भी कर्मयोगी कहलाता है, महर्षि अरविंद ने ऐसा उल्लिखित किया। वेदों, पुराणों को नहीं मानने वाला भी बोलता है कि मैं कर्म योगी हूं। वेदों से जो धारा आई थी वाल्मीकि रामायण में, उसमें एक अद्भुत स्थापना हुई, गोस्वामी जी केवल कर्म की शिक्षा नहीं देते, केवल ज्ञान या भक्ति की शिक्षा नहीं देते, ईश्वर को समर्पित होकर, जो विधान शास्त्रों में वर्णित है, उनके अनुरूप स्वयं चलते भी हैं। कहा जाता है कि यहां के ऋषियों ने पूरी दुनिया को ज्ञान दिया। भारत में अभी भी विश्व गुरुत्व है। छोटे उद्देश्यों के लिए जीकर कोई विश्व गुरु नहीं होता। लिखा है मनु ने कहा कि श्रेष्ठ ऋषियों ने ब्राह्मणों ने संपूर्ण संसार को चरित्र की शिक्षा दी। हम पहले स्वयं को चरित्रवान बनाते हैं और उसके बाद ही दूसरों को चरित्रवान बनने के लिए प्रेरित करते हैं। रामराज्य में भी ऐसा ही होता है। रामजी पहले स्वयं चरित्र शिरोमणि हैं, उसके बाद ही उनका व्यापक प्रभाव समाज पर दिखने लगता है। संसार को चरित्र की शिक्षा भारत ने ही दी है। 
गोस्वामी जी ने अपने संपूर्ण जीवन में ज्ञान को प्रकट किया। उसे अपने चरित्र में उतारा, जैसे राम जी ने अपने संपूर्ण काल में चरित्र के माध्यम से संसार को राम राज्य का स्वरूप दिया कि कैसे आदमी को होना चाहिए, उसी दिशा में गोस्वामी जी के प्रयास हैं। वे केवल भक्त नहीं हैं, केवल कवि नहीं हैं। 
आज कई कविता बनाने वाले हैं, जिनका जीवन कहीं भी ज्ञान से नहीं जुड़ा है, जिनका जीवन दुराचारों से जुड़ा है। 
जब तक हमारा ज्ञान चरित्र में नहीं उतरे, तब तक कुछ भी सिद्ध नहीं होगा। आज भी जो लोग राम जी के रास्ते पर चलकर अपना जीवन संवारने में जुटे हैं। जनता की सेवा में जो लगे हैं, उन्हें भी प्रेरित होने की जरूरत है। नौकरी करने वालों को भी गोस्वामी जी के अभियान से जुडऩा चाहिए। हम केवल कर्म के संपादक नहीं बन जाएं, केवल हम तोते जैसे रटंत नहीं बन जाएं। जैसे तोता बोलता है कि शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, उसमें फंसना नहीं, लेकिन वह स्वयं फंस जाता है, क्योंकि उसे जाल का पूरा ज्ञान नहीं है। क्रमश:

पायो परम बिश्रामु

भाग - २
यह गोस्वामी जी ने कैसे कह दिया कि मैं स्व सुख के लिए ग्रंथ रच रहा हूं। स्व का जो अर्थ है, आत्मा केवल हमारी आत्मा नहीं, भगवान की आत्मा। 
संपूर्ण पृथ्वी भगवान का शरीर है। जैसे जल शरीर है। वैसे ही हमारी आत्मा भी है। आत्मा की भी आत्मा भगवान हैं। अपने भगवान राम की खुशी के लिए गोस्वामी जी ने रामायण की रचना की, इसी में उनका जीवन धन्य हुआ और यह काम दूसरों के लिए लाभप्रद हुआ। 
गोस्वामी जी अपने संपूर्णजीवन में जिन कर्मों, जिन मान्यताओं को, जिन विधाओं, परिपाटियों, जीवन जीने के क्रमों को वेदानुकूल स्मृतियों, पुराणों, इतिहासों ने बताया था, उन सभी क्रमों, नीतियों, सिद्धांतों को लोगों को बतलाने का प्रयास किया और यह काम उन्होंने अपने ग्रं्रंथों के माध्यम से किया। इस संसार में 126 साल तक वे रहे। इतनी ही उनकी आयु मानी जाती है। विक्रम संवत 1680 में अस्सी घाट पर उन्होंने देह का त्याग किया। 
कई लोग यह भ्रम पाल लेते हैं, यह गलत है। तुलसीदास जी ने पारिवारिक जीवन के लिए अपने जीवन के लिए राष्ट्र के जीवन के लिए मौलिक अवदान दिया। यह अवदान औरों से उन्हें अलग करता है, उस पर मैं दृष्टि डाल रहा हूं। गीता ने यह नहीं कहा कि देश के लिए लडऩा चाहिए, गीता कर्म का विधान करती है, युद्ध के लिए प्रेरित करती है, अर्जुन को प्रेरित कर रही है कि संन्यासी नहीं बनना है, युद्ध करना है। सत्य और राष्ट्र के लिए युद्ध करना है, इसी से कल्याण होगा। केवल युद्ध से कोई कर्मयोगी नहीं बनता। केवल कर्म से व्यक्ति उसके बंधन में आ जाता है। उसमें दोष आ जाता है। 
गोस्वामी जी ने शास्त्रों में प्रतिपादित सिद्धांतों को ईश्वर भक्ति की चासनी में डुबोकर रचना की। गोस्वामी जी को अपूर्वता प्राप्त है, जो वाल्मीकि रामायण से प्रवाहित हो रही है, पुराणों से प्रवाहित हो रही है, उसके लिए गोस्वामी जी ने कहा कि यदि माता-पिता की आप सेवा करें, तो उस सेवा का स्वरूप वैसा ही होना चाहिए। भक्ति से हमें कुछ लेना नहीं है। माता-पिता की सेवा उनकी खुशहाली के लिए है। अपने कत्र्तव्य के अनुपालन के लिए है। हम परिवार की सेवा करें, जो हमारे माध्यम से संसार में आए हैं, उनकी सेवा करें। हम गायों की सेवा करें, अतिथियों की सेवा करें, किसी भी तरह से हम अपनी शक्ति को कहीं लगाएं। कर्मयोग का परिमापक यंत्र है। मनमानी कर्म से जीवन नष्ट हो जाता है। जैसे लंका वाले नष्ट हो गए। तुलसीदास जी ने कहा कि हम धर्म द्वारा नियंत्रित कर्म करें, लेकिन यह ध्यान रहे कि हम सभी कर्म ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए करें। वही उत्स है, वही आत्मा है, ईश्वर समर्पण के भाव से अपने स्वार्थों को नियंत्रित करके जब हम कर्म करेंगे, तो हमारा पारिवारिक जीवन भी अच्छा हो जाएगा। समाज, राष्ट्र, संसार का जीवन सुधर जाएगा। 
कुछ लोग इसे केवल भक्ति का ग्र्रंथ मानकर चलते हैं, यह भी पूरा सही नहीं है। यह सामाजिक ग्रंंथ भी है, पारिवारिक ग्रं्रथ भी है। राम जी के प्रभाव में कोल-भील्लों में भी सुधार आ गया। रामजी को देखकर उनके जीवन, संस्कार, कर्म देखकर संपूर्ण समाज राम जी की प्रसन्नता के लिए जीने लगे। कोल-भील्लों ने भी राम जी से कुछ नहीं मांगा, कोई लौकिक लाभ सिद्ध नहीं किया। इस तरह के भाव को तैयार करते हैं गोस्वामी जी। 
डॉक्टर, किसान, वकील इत्यादि सभी को गोस्वामी जी प्रेरित करते हैं, उनका एक ही लक्ष्य है कि हर परिवार में रामराज्य आए। जैसे राम जी ने अपने पिता के वचन की पालन के लिए घर छोड़ दिया, उन्होंने स्थापित किया कि मां देव है, पिता देव हैं, इनकी सेवा करेंगे, इन्हें प्रसन्न करेंगे, तभी रामराज्य आएगा। अयोध्या में अर्थ काम के लिए युद्ध नहीं होते। वहां से राम जी संसार को प्रभावित करते हैं। राम जी के पास सद्भाव है, वाणी है, मन है, ज्ञान है, वे सभी को खुश करते चलते हैं। वह आश्रमों में स्वयं जाकर ऋषियों को सुख देते हैं। जैसे राम जी ने बिना फल की आकांक्षा के जीवन जीया, संपूर्ण संसार के प्राणियों को धन्य जीवन दिया, परिपूर्ण जीवन दिया। उन्होंने अपने सभी कत्र्तव्यों की पालना की।  
गोस्वामी जी ने अपने सभी ग्रंंथों में इन्हीं स्थापनाओं को बल दिया। उन्होंने यह नहीं सिखाया कि कैसे भी पैसा कमा लो। उन्होंने उच्च जीवन के साथ धन कमाना सिखाया है। 
गीता संत सैनिक बनाती है। उसमें संतत्व भी होता है और सैन्य भाव भी होते हैं। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस व अपने अन्य ग्रंथों के माध्यम से प्रकाश पूंज तैयार किया। यह महत्वपूर्ण है कि हमें जीवन के इन सभी सकारात्मक क्षेत्रों में प्रेरित होने की जरूरत है। हमें यह ध्यान रहे कि हम केवल अपना स्वार्थ नहीं चाहें। ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अपने जीवन को समर्पित करें। तुलसीदास जी के हर वाक्य की प्रेरणा चिंतन की अनादि परंपरा से जुड़ी हुई है। क्रमश:

पायो परम बिश्रामु


(गोस्वामी तुलसीदास जी पर महाराज स्वामी रामनरेशाचार्य जी का प्रवचन)
गोस्वामी तुलसीदास जी कवि जगत के शिरोमणि हैं। दुनिया में कवियों की जो शृंखला है, दुनिया में प्रशस्त जो कवि हुए सभी भाषाओं में, सभी धर्मों में, तो उनके कवित्व का एक महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी में जो कवि हुए, जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो गया, उसमें गोस्वामी तुलसीदास की समकक्षता आज तक किसी को नहीं मिली है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस का निर्माण किया, चार सौ वर्षों से भी ज्यादा हो गए। मैं छोटा था, चतुर्थ सदी मनाई गई थी मानस की। संवत 1631 में रामनवमी के दिन मंगलवार को उन्होंने रामचरितमानस की रचना की शुरुआत की थी। दो वर्ष से ज्यादा समय लिखने में लगा। उनका रचनात्मक जीवन श्रेष्ठ है, उनमें सहज भाव है, प्रेरक स्वरूप है। महाकाव्य कितने बने, उसमें रामचरितमानस को कोई अतिक्रमित नहीं कर पाया। इतने दिनों में दुनिया में कितने परिवर्तन हुए। अपने देश में सत्ता बदली, कोई ऊपर हो जाता है, कोई नीचे हो जाता है, गुलामी गई, अंग्रेज गए। इतने वर्षों में हृदय को कंपित कर देने वाली कौन सी विद्या है कि तुलसीदास जी का जो अमर काव्य है, उनके जो दूसरे ग्रंथ हैं, उन्हें पार करना तो दूर किसी को उनकी समकक्षता ही प्राप्त नहीं हुई है। मैं हिन्दी की बात कर रहा हूं। गोस्वामी जी दुनिया के सबसे बड़े कवि हैं। सभी तरह की संपन्नता इस महाकाव्य में है, यह समकक्षता किसी को प्राप्त नहीं हो पाई। जैसे भगवान की कोई बराबरी नहीं कर सकता, वैसे ही रामचरितमानस की बराबरी कोई नहीं कर सका है। यह कृति उनके ही व्यक्तित्व को ऊंचाई नहीं देती, पूरी हिन्दी भाषा को ऊंचाई देती है। हिन्दू संस्कृति, हिन्दू विचारधारा, चिंतन, राम भक्ति धारा को उन्होंने ऊंचाई पर पहुंचा दिया। 
रविन्द्रनाथ टैगोर को लोग विश्व कवि बोलते हैं, विचारकों में कवियों में उन्हें बड़ा स्थान प्राप्त होता है, लेकिन रामचरितमानस की समकक्षता टैगोर की रचना गीतांजलि को नहीं मिल पाई। टैगोर को दुनिया में साहित्य का सबसे बड़ा सम्मान नोबेल मिला था, लेकिन उनकी लोकप्रियता-उपयोगिता वैसी नहीं हुई। आज मंगल भवन अमंगल हारी को एक रिक्शाचालक भी जपता है। रामचरितमानस की पहुंच घर-घर तक है। गोस्वामी जी ने समाज को अत्यंत परिष्कृत, परिपूर्ण ज्ञान प्रदान किया है।  
भगवान की दया से द्वादस ग्रं्रंथों को तुलसीदास जी ने समाज के लिए रचा। उन्होंने पैसा कमाने के लिए ऐसा नहीं किया। किसी को प्रभावित करने के लिए उन्होंने ऐसा नहीं किया। कौन-सा लौकिक प्रयोजन था, गोस्वामी जी ने महर्षि वाल्मीकि की परंपरा में रहते हुए कहा कि मैं सब कुछ कहूंगा जो शास्त्र अनुकूल होगा, प्रेरक होगा, भारतीय संस्कृति का संरक्षक होगा। मैं यह जो कर रहा हूं वह मेरी साधना है। इससे श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होगी, सबको इससे लाभ होगा। परिवार, समाज राष्ट्र और संपूर्ण संसार की उन्नति होगी। कहा गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के प्रारंभ में, मैं राम जी के चरित का वर्णन कर रहा हूं। मैं अपने सुख के लिए राम जी के गुणों का गायन कर रहा हूं। 
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति।
इससे लोग समझते हैं कि गोस्वामी जी ने अपने सुख के लिए ही ग्रं्रंथ लिखा। लोग यहां भूल कर देते हैं, संत तो दूसरों के लिए ही जीवन जीता है। जो संपूर्ण प्राणियों की भलाई के लिए समर्पित हो, सतत कर्मशील हो, श्वांस श्वांस, हर चेष्टा सभी प्राणियों की पीड़ा को मिटाने के लिए संत जीते हैं। संत का स्वरूप विशाल होता है। भक्ति मार्ग में यह बात कही जाती है कि भक्त वह है, जो अपने सुख की परवाह नहीं करता, वह अपने भगवान के सुख के लिए प्रयास करता है। उसके सुख में ही वह सुखी होता है। जैसे गोपियों का अपना सुख गौण है, वे केवल भगवान कृष्ण के सुख के लिए जीवन जीती हैं। उनमें कोई लौकिक इच्छा नहीं है, कभी नहीं कहा कि आपको हमारे सुख के लिए ऐसा करना चाहिए। राम भक्ति परंपरा में राम भी दूसरों को सुख देते हैं और लोगों को जोड़ते हैं। क्रमश:

Tuesday 11 April 2017

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

समापन भाग 
भगवान कितने खुश हो रहे होंगे कि हम लोग इस घनघोर कलयुग में भी सत्संंग में बैठे हैं। अभी दुनिया में करोड़ों-करोड़ों लोग क्या-क्या कर रहे होंगे, आप भी घर में होते, तो कुछ करते ही, मैं भी कमरे में होता, तो कुछ करता, लेकिन अभी जो मैं कर रहा हूं, उससे अच्छा नहीं करता और जो आप कर रहे है उससे अच्छा नहीं कर रहे होते। 
अभी हम लोग मोक्ष यज्ञ के संपादन में लगे हैं। यह सबसे बड़ा काम है। हम कानों का उपयोग कर रहे हैं, हम मन का उपयोग कर रहे हैं, हम चित्त का उपयोग कर रहे हैं, अहंकार का उपयोग कर रहे हैं, हम अपने पैरों का उपयोग कर रहे हैं। हम अपने शरीर के सभी अंगों का उपयोग कर रहे हैं। भगवान की आराधना में धीरे-धीरे हमारा मन पिघल रहा है। विश्वास की ओर बढ़ रहा है। समर्पण की ओर बढ़ रहा है। निष्ठा की ओर बढ़ रहा है। आज नहीं तो कल भगवान को पिघलना ही होगा और पिघलकर हमें अपनाना ही होगा, गले लगाना ही होगा। इसके लिए भगवान अब रुक नहीं पाएंगे। जैसे उन्होंने कोल-भील्लों को गले लगाया। लेकिन संकल्प बड़ा होना चाहिए और पूर्ण रीति से होने की जरूरत है। मैं पंजाब में अपने भक्तों से पूछता हूं, तुम भी कुछ भजन कीर्तन करते हो या नहीं? पंजाब वाले भक्त क्या बोलते हैं, आप सुनो। पंजाब वाले भक्त कहते हैं, माढ़ा-मोटा पूजन करता हूं। मतलब थोड़ा-बहुत पूजन करता हूं। 
मैं उनको पूछता हूं, जब दुकान पर जाकर इतने घंटे बैठते हो, तो दो रुपए मिलते हैं, तो दो अगरबत्ती दो मिनट घुमाने से तुम्हें भगवान क्या देंगे, बतलाना तो। घंटा दो घंटा पढऩे से कोई आईएएस की परीक्षा पास करेगा क्या? थोड़ी-पढ़ाई से कोई बड़ी परीक्षा में टॉप करेगा क्या? दो चार दंड बैठक करने से हिंद केसरी होगा क्या? देश का सबसे बड़ा पहलवान होगा क्या? नहीं होगा। जो हम धन कमाने के लिए करते हैं, जो हम भोग कमाने के लिए करते हैं, जो हम धर्म कमाने के लिए करते हैं, उससे बहुत ज्यादा जब हम मोक्ष कमाने के लिए करेंगे, तो हमारा जीवन धन्य होगा। जगद्गुरु वल्लभाचार्य जी ने लिखा है, (नाथद्वारा बहुत बड़ा संस्थान है उनके भक्ति मार्ग का) अर्थ कहते हैं धन को, धन कमाने के लिए हम कितना प्रयास करते हैं, तो भगवान तो परमार्थ हैं, परम अर्थ हैं, सबसे बड़ा धन हैं, उन्हें कमाने के लिए बहुत-बहुत लाखों-लाखों करोड़ों-करोड़ों गुणा ज्यादा प्रयास की जरूरत है, अधिक प्रयास की जरूरत है। अभी वाला कम प्रयास नहीं चलेगा। दो मिनट केवल ध्यान, पूजन करने से, इलायची दाना भोग लगाने से। भगवान को इलायची दाना नहीं चलेगा, भगवान का नाम पांच मिनट लेना नहीं चलेगा। आदमी अपने बच्चों को कितनी देर तक खेलाता, खिलाता है, लेकिन भगवान के पास बैठने पर दम घुटने लगता है। अभी आपको पता नहीं है, बाल स्वरूप भगवान की सेवा में घंटों-घंटों भगवान को वैसा करना पड़ता है, जैसा माता-पिता परिवार के लोग अपने बच्चों को मनोरंजन का संसाधन देते हैं। मैं देखकर हैरान हो जाता हूं, इन माताओं में भगवान को अद्भुत रूप से अनुकूल बनाने की क्षमता है। क्योंकि ये बच्चों को बहुत देर तक रिझाती हैं। रोते हैं, तो चुप कराना, हंसाना, उसके मन को परिवर्तित करना, उसका सारा रोम-रोम खिला देना, अपने अनुकूल व्यवहार से, मुंह बनाकर, बोलकर, आंखों से, हाथों, पैरों को उपयोग करके, सभी प्रकार के संसाधन से माताएं ऐसा करती हैं, तो वे भगवान के लिए भी ऐसा कर सकती हैं। 
भगवान ने हमें मनुष्य जीवन दिया है। हम अपने ही कर्मों से प्राप्त इस जीवन को, जो भगवान के परम अनुग्रह से हमें प्राप्त हुआ, उसका हम मोक्ष के लिए उपयोग करें। हमें स्वर्ग नहीं जाना है, हमें ब्रह्म लोक नहीं जाना है। हमें गणेश लोक नहीं जाना है। हमें देवी लोक नहीं जाना। हमें अब किसी दूसरे के लोक में नहीं जाना, हमें तो राम कृष्ण के लोक में जाना है। जहां जाने से लौटा नहीं जाता, वहीं मेरा धाम है।
आपको भी दिव्य जीवन की प्राप्ति हो, जय सियाराम। 

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - १४
हमारा जूता सीना भी कल्याण के लिए है। क्यों? जूता सीऊंगा, दो पैसे आएंगे, तो राम जी की माला लाऊंगा, भोग लगाऊंगा, जो संत आएंगे, उनकी सेवा करूंगा। और मैं भी उसका बचा हुआ खाऊंगा। यह धर्म का बहुत बड़ा स्वरूप है। स्वयं अर्जित करना और उसके आधार पर जीवन जीकर भक्ति करना। हम लोगों का कमजोर वाला जीवन है, मांग करके दूसरों के संसाधन के ऊपर अवलंबित होकर भक्ति करना। 
स्वजीवी, परोपजीवी, यह दो विभाग हैं। जूता सीना भी भक्ति है। एक बार रविदास जी की महिमा फैली, तो वहां के राजा आए और कहा कि मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। रविदास जी ने कहा कि हमें जरूरत होगी तो बताऊंगा। बहुत-बहुत आपको आशीर्वाद, आप खूब भक्ति करें, गरीबों की सेवा करें, आप आए हमारे यहां, मैं धन्य हुआ, आप पर भी राम जी की कृपा बरसे। 
राजा ने कहा कि आप मांगिए, आप मुझसे सेवा लीजिए। 
धनवान लोग ऐसे ही कहते हैं। हमें भी एक धनी ब्राह्मण कह रहे थे कि चातुर्मास में हमारा भी भंडारा हो जाए, मैंने कहा, जब जरूरत होगी, तो हम आपके यहां कटोरा लेकर आएंगे। कोई फलोदी का था मनचला ब्राह्मण, नहीं माना, तो मैंने कहा, आप जाओ, जब आपका भंडार नहीं हुआ था, तब भी मैं प्रसाद पा रहा था और आगे भी पाऊंगा।   
रविदास जी ने भी कहा था कि चलो महाराजा, आपकी जरूरत होगी, तो कटोरा लेकर आपके द्वार आऊंगा। 
मैंने भी वैसा ही कहा। उनको अनुमान था कि वो ही पैसा देंगेे, तो ही चातुर्मास होगा। 
बताते हैं, वह राजा जाते-जाते संत रविदास को पारसमणि दे गया और कहा, इससे जो भी आप चाहें, बना लीजिए। किसी से कुछ मांगने की कोई जरूरत नहीं, जूता बनाने की जरूरत नहीं। 
रविदास जी ने कहा, रहने दीजिए, हम संतुष्ट हैं अपने जूता सीने से।
भक्त विनम्र होता है, इससे कौन लड़ेगा? राजा नहीं माना, तो अंत में रविदास जी ने कहा, आप इसे झोंपड़ी में कहीं रखवा दीजिए। राजा को बुरा लग रहा था, ये तो ले भी नहीं रहे हैं। उसने अपने मंत्री से कहा कि जहां कह रहा है, वहां रख दो। उसके बाद राजा एक साल तक पता करता रहा कि रविदास जी ने पारसमणि से सोना बनाया या नहीं बनाया। रिपोर्ट आती रही कि वैसे ही जूता सी रहे हैं, संत व भगवत सेवा वैसे ही हो रही है। 
अंत में राजा एक साल के बाद आ गए, राजा ने कहा, मैंने जो पारसमणि दिया था आपने उसका उपयोग नहीं किया। 
संत शिरोमणि ने कहा कि कोई जरूरत नहीं पड़ी, नहीं तो मैं जरूर करता। आपके राज्य में रहता हूं, आपका ही दिया हुआ खाता हूं, मैं क्यों नहीं करता? लेकिन मुझे लगा कि इसकी जरूरत नहीं है। 
राजा ने पूछा, कहीं आपने किसी को दे तो नहीं दी, बेच तो नहीं दी?
रविदास जी ने कहा, मैं क्षमा चाहता हूं कि मैंने तो देखा ही नहीं कि कहां रखा है, जहां आपने रखवाया होगा, वहीं होगी पारसमणि। 
मंत्री ने निकाला, उसी जगह पारसमणि टिकी हुई थी। एक साल बाद राजा अपनी पारसमणि ले गए।
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। 
जब हमें भगवान उम्मेद भवन पैलेस देंगे, जब भगवान हमें सबसे महंगी गाड़ी देंगे, सबसे सुंदर पत्नी देंगे, सबसे सुंदर बेटा-बेटी देंगे। पोता, पोती देंगे, खूब पैसा देंगे, संपत्ति देंगे, सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा देंगे, क्या तभी हम भगवान को कहेंगे कि ओम जय जगदीश हरे...
तब तो कभी कल्याण होने वाला नहीं है। अभी जो संसाधन मिला हुआ है, जो जीवन मिला है, टेढ़ा-मेढ़ा, जैसा भी मिला है, जाति, माता-पिता, जो भाषा मिली, जो स्वभाव मिला, जो भी भोजन मिला, संस्कृति, सभ्यता, मर्यादा मिली, उसी में हमें भगवान की शरण में जाकर उनकी सेवा में लग जाना है। आप आए हो यहां, कितनी अच्छी बात है। आप मेरे लिए आए हो, केवल ऐसा ही नहीं है, हम भी अपने कल्याण के लिए आपके यहां आए हैं। हमारा भी कल्याण हो, आपका भी कल्याण हो, ऐसी भगवान से प्रार्थना है। आप भी अपने लिए आए हैं, मैं भी अपने लिया आया हूं। हम दोनों - श्रोता, वक्ता मिलकर एक ही सिद्धी के लिए तत्पर और समर्पित हैं। हमारा मन भगवान में लगे, समर्पित हो। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - १३
सिद्धों की बातों को सिद्ध लोग ही समझते हैं। मैं असिद्धों की भाषा बोलता हूं। एक मेरे गुरु थे, जिनसे मैं मीमांसा दर्शन पढ़ता था, जिनको मूल ग्रंथ और व्याख्या शब्दश: याद थी। अद्भुत विद्वान थे सुब्रह्मण्यम शास्त्री, दक्षिण भारत के थे। मदन मोहन मालवीय उनको अपना बेटा मानते थे। मैं जब उनका स्मरण करता हूं, तो मेरा शरीर पिघलने लगता है। अभी भी पिघल गया, क्योंकि उनका बहुत स्नेह था मेरे साथ। उन्होंने दो अक्षर जो मुझे दिया, वो बहुत दिया। वह कहते थे, क्या ऐसा योग न हो जाए कि कहीं हम फिर इक_े हो जाएं। आपको देखकर बहुत खुशी होती है, काशी नहीं छोडऩा। 
लेकिन मैं काशी छोडक़र हरिद्वार आ गया। 
वे कहते थे, वह वक्ता ही जड़ है, जिसकी बात को श्रोता समझ नहीं सके। 
अरे खिचड़ी में घी पडऩा चाहिए, लेकिन इतना न पड़ जाए कि बाढ़ आ जाए थाली में, तो गड़बड़ा जाए। बहुत ज्यादा भी घी न हो कि पेट खराब हो जाए। धीरे-धीरे बात होनी चाहिए। यह आचार्यों की शैली है। धीरे-धीरे अपनी बात को कहना। अपनी बात का भी व्याख्यान करना। जब तक लगे कि श्रोता पूरा समझ नहीं गया, तब तक कहते रहना। तो बात आगे बढ़ेगी। तो भगवान की दया से आप सभी को अब शंकराचार्य जी के वचन की ओर ले चलता हूं। जहां शंकराचार्य जी ने कहा कि हे भगवान, मैं ऐसा नहीं कि कभी आपकी पूजा करता हूं और कभी रोटी-दाल के लिए करता हूं, यह तो छोटा वाला काम हुआ, बारह घंटा रोटी के लिए और पांच मिनट अगरबत्ती के लिए, फूल के लिए, इसमें कल्याण होगा क्या? यहां बैठे हुए लोगों से मैं पूछता हूं कि आज तक आपने जो जीवन जीया है, उसमें से कितना धन के लिए जिया, कितना आपने भोग के लिए जिया, कितना आपने धर्म के लिए जिया और कितना आपने मोक्ष के लिए जिया। जीवन तो इतना ही है कि बहुत मुश्किल से मिला है। आपको बतलाना चाहिए, सोचना चाहिए, मन में आप निर्धारण करें, अरे कमाने में ही सारा जीवन निकल गया, फिर भी गरीबी नहीं गई। नहाने में और सजने में ही सारा जीवन निकल गया, फिर भी सुंदरता नहीं आई। जमाने में ही सारी शक्ति लग गई, फिर भी मोहल्ले में भी प्रतिष्ठा नहीं हुई। घर के ही दो लोग नहीं मान रहे हैं कि आप भले आदमी हैं। सारा जीवन निकल गया, लेकिन दो कमरे अभी अधूरे ही हैं, पूरे नहीं हुए हैं। दरवाजा लग गया, तो खिडक़ी नहीं है, खिडक़ी लग गई, तो मच्छर वाली जाली नहीं है। मार्बल लग गया, तो घिसाई नहीं और घिसाई हो गई, तो भंडार में ग्रेनाइट नहीं, सब अधूरा ही अधूरा है। आपको बतलाया था कि दुनिया का २२ प्रतिशत लोहा पैदा करने वाले लक्ष्मीनिवास मित्तल का मकान बिक गया २५० करोड़ रुपए का। आपके राजस्थान में नहीं, पूरे देश में ऐसा आदमी नहीं, जो दुनिया का २२ प्रतिशत लोहा उत्पन्न करता है, उसने बहुत शौक से लिया होगा मकान, वह बिक गया। इसको बोलते हैं अर्थ, भोग। धर्म के लिए कितना किया? धर्म के लिए कितना जीवन? कितनी चेष्टाएं, कितने श्वांस, कितने कदम, कितनी रक्त की बूंदें, बतलाएं कि आपने धर्म के लिए कितना किया? मोक्ष के लिए तो खाता ही खाली है। जगद्गुरु शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि आप यह नहीं मानना कि मैं थोड़ी के लिए आराधना करता हूं और थोड़ी देर के लिए कमाता हूं, थोड़ी देर के लिए खाता हूं, थोड़ी देर के लिए सोता हूं। वह जमाना गया, जब चार पुरुषार्थों में जीवन की शक्ति को उड़लते हैं, अब मैं उस अवस्था में पहुंच गया हूं, जो मैं करता हूं, वह आपकी आराधना में ही करता हूं और कुछ नहीं करता। 
जो-जो कर्म करता हूं, वह सब संपूर्ण हे शम्भू आपकी आराधना ही है, मैं और कोई काम नहीं करता। यह जीवन हमें चाहिए। जूता सीने वाले रविदास से भी कोई पूछता था, तो बोलते थे कि राम जी की आराधना कर रहा हूं। आप कल्पना करेंगे?ï धन्य है सनातन धर्म, जिसने रविदास को अपने सिर पर रखा, ब्राह्मणों ने चरणामृत लिया और उच्च आदर दिया, जो आदर दुनिया में हीन अवस्था के जीवन को नहीं मिला। 
मैं पहले भी कह चुका हूं, ईसाई धर्म के काले रंग के व्यक्ति को संतत्व की उपाधि द्वितीय बुश के कार्यकाल में मिली। नहीं तो ईसाई धर्म में काला महात्मा नहीं होता। हमारा तो जूता सीने वाला भी संत शिरोमणि हो जाता है। आप सभी लोगों की बात कह रहा हूं। आप यह नहीं समझना कि महाराज अपने श्रीमठ या रामानंद संप्रदाय की बात कर रहे हैं। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - १२
मैं कह रहा हूं कि कभी भी कुछ भगवान को अर्पित करो, तो प्यार से अर्पित करो। दुर्भावनाओं को निकालो, संयत बनाओ मन को, कभी इधर भाग रहा है, तो कभी उधर भाग रहा है। तमाम दुर्भावों से युक्त मन नहीं चलेगा। मन में प्यार का प्राकट्य करो, प्यार प्रवाहित करो और उसके बाद समर्पण करो, तो भगवान स्वीकार करेंगे। यह हुआ कल्याण का मार्ग, मोक्ष का मार्ग। यह दान नहीं हुआ। दान तो बहुत छोटी चीज है। सनातन धर्म में जहां-जहां पूजा की बात आती है, वहां-वहां जरूर पुराणों में, स्मृतियों में इतिहासों में कहीं भी यदि कहा कि उन्होंने पूजन किया, तो यह जरूर कहते हैं कि प्रेम के साथ पूजन किया। भरत जी पूजन करते हैं राम की चरण पादुका का, नंदी ग्राम में सिंहासन पर प्रतिष्ठित करके राजा के रूप में उनका सम्मान करते हैं, उनकी आज्ञा लेते हुए, उनके निर्देश से पूरे राष्ट्र का संचालन भरत जी कर रहे हैं। यहां से रामराज्य शुरू हो गया। राम जी की चरण पादुका राज्य का संचालन कर रही है। तुलसीदास जी ने अयोध्या कांड के अंत में लिखा है, 
नित पूजत प्रभु पाँवरी 
भरत जी पादुका की रोज पूजा करते हैं। भरत जी जानते हैं, मेरे साथ चरण पादुका जी आई हैं, मैंने उनको तैयार करवाया। भरत जी चरण पादुका का पूजन कैसे करते थे, काग भुसंडी रामायण में उनका वर्णन मिलता है। मंत्र-तंत्र की भाषा में लिखा था, उसे कोई समझ नहीं पाता था। पंडित राजेश्वर प्रसाद द्राविड़ ने समझाया था। आप ध्यान दीजिए कि भरत जी पूजन कैसे करते हैं, 
तुलसीदास जी ने लिखा - प्रीति न हृदयँ समाति।
जैसे नदी अपने तटों को लांघ जाती है, उछाल लेकर तटों से बाहर आ जाती है, अब तट नहीं रह पाए, तट सामथ्र्यहीन हो गए, वैसे ही प्रेम इतना उमडऩा चाहिए कि लगे कि आपके संभाल में नहीं आ रहा है। भरत जी ऐसा पूजन करते हैं। तुलसीदास जी को बड़ा ज्ञान है शास्त्रों का, उन्हें मालूम है कि कैसे भक्ति होती है। यहां तो अनेक लोग पूजन करते हैं, तो चेहरा पहले से भी खराब हो जाता है। आज कई लोग बदमाश हो गए हैं, पूजन के समय हलो-हलो भी करते हैं, अपने पास मोबाइल रखना चाहिए क्या पूजन के समय? हाईकोर्ट में कोई मोबाइल लेकर जाए, तो रजिस्ट्रेशन भी रद्द हो जाएगा, लेकिन जब मेरे पास वकील आते हैं, तो मोबाइल रखते हैं! अब लोग गलत करने लगे हैं। कथा में बैठे हुए हैं पंडित जी पूजा करवा रहे हैं और साथ ही साथ मोबाइल भी देख रहे हैं, यह पूजन नहीं है। आपको पूजन के लिए अवसर मिला है, यह बहुत संक्षिप्त संसाधन में मोक्ष की यात्रा हो रही है। इसमें किसी मोबाइल की जरूरत है क्या, सत्संग में मोबाइल, मंदिर की पूजा में मोबाइल, गुरु के दर्शन और सामिप्य में मोबाइल, माता-पिता के पास दो मिनट के लिए बैठे हैं, उसमें भी मोबाइल? फोन आता है, तो मोबाइल लेकर लोग ऐसे दौड़ते हैं कि कोई बहुत बड़ी समस्या आ गई हो। मैं भी यहां मोबाइल लेकर आता, तो कैसा लगता आपको बताइए। 
भगवान की दया से जब भी अवसर मिले, तो पूरे भाव से पूजन करें। हमें अपना संपूर्ण जीवन मोक्ष के लिए ही जीना चाहिए। तो गृहस्थी कैसे चलेगी? हमारा देखना, बैठना, बोलना सब मोक्ष के लिए है। 
हम लोग रामानंदाचार्य की पंरपरा के हैं। जो राम भक्ति के प्रवर्तक महान संत थे। जब-जब त्रेता का अवतरण होगा, तब-तब राम जी प्रकट होंगे - 
संभवामि युगे युगे।
और उनकी भक्ति निरंतर चलती रहती है, उसी भक्ति को जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी ने आगे बढ़ाया। राम भक्ति धारा को अत्यंत व्यापकता प्रदान की। रामभक्ति धारा को रविदास की झोंपड़ी तक पहुंचा दिया, जहां जूते सिए जाते थे और चमड़ा पीटा जाता था। यह काम भारत सरकार नहीं कर सकती, जब करेंगे, तो रामानंदाचार्य करेंगे और उनके आप जैसे भक्त करेंगे। ये प्रधानमंत्री के वश में नहीं। प्रधानमंत्री रोड बनवा देगा, बिजली लगवा देगा, यही सब काम करें, यही बहुत है। धन्य है संतों का जीवन। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ११
ईश्वर को हम क्या देंगे, वह सर्वसाधन संपन्न है। वह ऐश्वर्यशाली है। समग्र एैश्वर्य का नाम भग है, संपूर्ण यश का नाम भग, संपूर्ण सुंदरता का नाम भग है, संपूर्ण ज्ञान का नाम भग है, वैराग्य का नाम भग है, सब तो इसी में आ गए और भग जिसके पास हो, उसे भगवान कहते हैं। 
सबकुछ जब भगवान के पास है, तो हम भगवान को क्या देंगे। ध्यान दीजिए, पत्ता कोई भी चलेगा, तुलसी का ही नहीं, बेल पत्र ही नहीं, कोई भी पत्ता दीजिए। भगवान का बनाया हुआ है। दीजिए पत्ता। खाली हाथ भगवान के यहां नहीं आएं। 
राजा, देवता और गुरु के यहां खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। कुछ लेकर ही जाएं। आज आपको बताना है देने का तरीका। पत्ता भी कल्याण का साधन कैसे बनेगा, मोक्ष का साधन कैसे बनेगा, यह दान नहीं है, धन नहीं है, भोग नहीं है, भगवान ने कहा कि जो भी पत्ता, पुष्प, फल दें, जल दें, उसे आप भक्ति से दें, यानी प्रेम से दीजिए। चेहरे पर प्रसन्नता आनी चाहिए। हृदय लबालब हो भाव से। जैसे मां स्तनपान कराती है बच्चे को, अपना सर्वस्व उड़ेल रही है, उसके संरक्षण और संवद्र्धन के लिए कि मेरा बच्चा सुंदर हो जाए, शक्तिशाली हो जाए, देश का प्रधानमंत्री हो, बड़ा वैज्ञानिक हो जाए, बड़ा उद्योगपति हो जाए। अपना सबकुछ उसे पिला रही है, जीवन पिला रही है, अमृत पिला रही है। पत्ता देने में भी यही भाव आना चाहिए। भक्ति माने प्रेम। यदि आपको प्रेम का ज्ञान नहीं होता, तो मैं और भी समझाता। आपको प्रेम आता है। कभी-कभी तो आप देते ही हो प्रेम से अपने लोगों को, तो भगवान को भी प्रेम से दीजिए। यह भगवान की आज्ञा है। वस्तु कैसी भी चलेगी। पत्ता, फूल, फल, जल कैसा भी चलेगा। गंगा जल भी यमुना जल भी चलेगा, स्वच्छ होना चाहिए, पवित्र होना चाहिए। 
एक शर्त भगवान ने और लगा दिया कि अपने मन को समाहित करके, संयत करके दीजिए, निश्चल, एकाग्र, तमाम दुर्भावनाओं से रहित मन करके दीजिए। भगवान सबका नहीं लेते। भगवान को कोई कमी नहीं है। 
कबीर की कथा सुनाता हूं। एक छपरा जिला है, छपरा में एक संत थे हलकोरी बाबा, कबीरपंथी महात्मा थे। उन्हें सैंकड़ों जन्म दिखते थे। जो बीत गए और जो आने वाले हैं सब। वे नाम लिखना भी नहीं जानते थे। पढ़े नहीं थे। वहां प्रथा थी कि जन्म होने पर ही कंठी पहना देते थे, गले में बांध देते थे। उनको भी बांध दिया था, सयाने हुए, तो पूछा कि यह धागा क्या है।
लोगों ने कहा कि वहां तुम्हारे गुरु की समाधि है, उनसे पूछो।
वहां जाने पर उन्हें विशिष्ट दृष्टि की प्राप्ति हुई गुुरु के अनुग्रह से। उन्होंने लौटकर घर वालों को कहा, मैं अब कुछ नहीं करूंगा। केवल राम राम जपूंगा। मेरे हिस्से की जमीन के आधार पर आप मुझे रोटी दे देना। वे केवल राम राम करते थे। कबीर लोग सीताराम सीताराम नहीं कहते हैं। केवल राम राम कहते हैं, जैसे राम स्नेही लोग करते हैं। खूब जपा, सारी रिद्धियां-सिद्धियां हो गईं उनको, आप पूछो कि दस जन्म पहले कहां थे, बीस जन्म बाद हम कहां जाएंगे, उन्हें सब दिखता था। वे एक बार लोगों के आग्रह पर तीर्थ यात्रा पर आए, लेकिन काशी में वे भगवान विश्वनाथ के मंदिर में नहीं गए। कबीर लोग निंदा करेंगे, कबीर मूर्ति पूजक नहीं हैं। जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी के शिष्य थे कबीर, जहां मैं रहता हूं, वहीं कबीर जी की दीक्षा हुई थी, काशी में उनका भी आश्रम है। पूरे देश में उनके आश्रम हैं। पूरे देश में कबीर मठ हैं। एक से एक महात्मा हुए कबीर मठों में। साईं बाबा भी कबीर परंपरा से दीक्षित थे। साईं मतलब स्वामी। जो लोग अभी कहने लगे हैं कि वे मुसलमान थे, वे राम नाम नहीं जपते थे। वे मूर्ख हैं, पक्षपाती हैं। साईं बाबा स्वयं कहते थे, वे अपने गुरु आश्रम बताते थे, अपने गुुरुजी का नाम बताते थे, जो गुजरात में है। 
वो पुस्तक मेरे पास बारह खंडों में पड़ी हुई है। उसमें मैंने साईं बाबा का इंटरव्यू पढ़ा है। एक लेखक कई वर्षों तक साईं बाबा के पास रहा। लिखते रहता था साईं बाबा की सारी बातें। पहले बांगला में लिखा, बाद में हिन्दी में अनुवाद हुआ। अपने समय के अनेक बड़े सिद्धों का वर्णन किया उस लेखक ने।
तो हलकोरी बाबा तब विश्वनाथ जी के यहां नहीं गए। जब वे लौटने लगे, गाड़ी पकडऩे के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे, तब भगवान विश्वनाथ दिव्य स्वरूप में अनेक तरह की मालाओं से सुसज्जित वहां पहुंचे, त्रिशूल, डमरू, चंद्रमा विभूषित ललाट इत्यादि से सज्जित। हलकोरी बाबा समझ गए कि भगवान हैं, दंडवत किया, क्षमा याचना की। कहा, मैं आपके मंदिर में नहीं आया। 
भगवान विश्वनाथ बोले कि यही कहने आया हूं कि आप क्यों नहीं आए, आपको आना चाहिए था। 
हलकोरी बाबा ने कहा कि मैं मंदिर जाता, तो कबीर लोग विवाद करते, मुझे सुनाते, निंदा करते, ये कहां चला गया कबीर पंथ की मर्यादा को छोडक़र, इसलिए नहीं आया। क्षमा चाहता हूं। 
धीरे से हलकोरी बाबा ने कहा, मैं दरिद्र आदमी हूं, मेरे जल की क्या महत्ता है, आपके यहां जल चढ़ाने वालों की कमी है क्या, करोड़ों-लाखों लोग आते हैं। 
विश्वनाथ जी ने कहा, मैं लोगों का जल नहीं पीता हूं, मैंने ही कूप, नदियां, समुद्र बनाए हैं। मैं तो उन लोगों का जल स्वीकार करता हूं, जिनका हृदय आप जैसा होता है, जो मुझे भक्ति से प्यार से देते हैं। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - १०
आप बुलाना जोधपुर महाराजा को चाय के लिए वो आएंगे क्या, वो बोलेंगे, आप ही आना। या हो सकता है, आपको कोई उत्तर ही न दें। राजा बड़ा आदमी होता है। मैं राजा की निंदा नहीं कर रहा हूं, लेकिन व्यावहारिकता की बात है, किसी आम आदमी के बुलाने से वह चाय पीने आएगा क्या? 
एक बार फलोदी में यज्ञ हो रहा था, महाराजा भी दर्शन के लिए आए। वर्ष १९९२ में वहां विशाल यज्ञ का आयोजन था। लोगों ने कहा, महाराज आने वाले हैं आप रुकिए, मिलकर जाइए। 
मैंने कहा, पहले से सूचना नहीं है। मैं चलता हूं।
यज्ञ परिसर में महाराज की गाड़ी घुस रही थी, मेरी निकल रही थी। जहां मैं ठहरा था, मैं वहां चला गया। घटना दोपहर १२ बजे की थी। वहां लोगों ने कहा कि महाराजा आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, अभी मैं स्नान करके भंडार बनाने जा रहा हूं, भोग लगाऊंगा, प्रसाद पाऊंगा, थोड़ी देर विश्राम करूंगा, उसके बाद पांच बजे मिलूंगा।
लोगों ने कहा, महाराज हैं, आप मिल लेते। 
मैंने कहा, उनके पास उम्मेद भवन पैलेस है, मैं भिखमंगा महाराजा हूं, आज पता चल जाए कि कौन महाराज है। अपनी परंपरा में इस राष्ट्र में संत को भी महाराज ही बोलते हैं। जिसके पास राम हैं, वो महाराजा या भवन वाला महाराजा? 
मैंने कहा कि मिलना हो, तो शाम पांच बजे मिलते हैं। 
महाराज भी रुके, वो शाम को आए, पत्नी और बुआ साथ थीं। लोगों ने कहा कि महाराजा के पैरों में तकलीफ है, इन्हें कुरसी पर बैठने दिया जाए। आज्ञा दीजिए।
मैंने कहा, जरूर-जरूर। 
सनातन धर्म में रोगी, वृद्ध और बालक के लिए बैठने की छूट है। चटाई बिछी हुई थी मेरे कमरे में, मैं चौकी पर बैठता था, लेकिन तब महाराजा ने कहा कि इन्हीं कुरसियों पर बैठकर तो पैर खराब हो गए, आज तो यहां नीचे चरणों में ही बैठना है। 
जो कुरसी लेकर आगे-पीछे कर रहे थे, उनका मुंह छोटा हो गया। जो असली घटना आपको बतानी है, वह सुनिए। मेरे पास बतासा रखा था बड़ा-बड़ा, वही मैं देता था सबको। महाराज को भी वही देना था, लेकिन मेरे जजमान के घर वाले काजू कतली, बादाम की चक्की ले आए, चांदी का ढक्कन, प्लेट, लेकर आए। मुझे देने लगे।  
मैंने पूछा, ये क्या है जी?
उन्होंने कहा, महाराजा को प्रसाद दीजिए। 
मैंने कहा, मैं एक ही प्रसाद सबको देता हूं, प्रसाद है बतासा का। एक ही प्रसाद देता हूं रिक्शा चलाने वालों को भी और राज भवन चलाने वाले को भी। यह भेद नहीं होगा। यह मेरा कमरा है, जहां मैं रहता हूं। मेरे कमरे में मेरा नियम चलेगा। भगवान के दिव्य धाम में एक ही प्रसाद भोग सभी लोग लेते हैं, ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। जब हम भगवान राम के यहां जाएंगेे, कृष्ण के यहां जाएंगे, तो वहां दो तरह का भोजन नहीं बनता, जो भगवान ग्रहण करते हैं, वहीं वहां गए हुए धन्य जीवन के लोग भी ग्रहण करते हैं। वहां भी सभी एक ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। भोग में साम्य है। मैंने कहा, एक बतासा दूंगा। 
मैंने जजमान से विनोद में कहा, जब आपने हमें ही काजू कतली नहीं खिलाया, तो इनको दूंगा क्या? 
यह बात महाराजा के सामने ही हो रही थी। जिनके यहां रुके थे, वो लड़े, लेकिन मैं नहीं माना। यह नहीं डरा कि जिनके घर में ठहरा हूं, वो फिर ठहराएंगे या नहीं, मैंने कहा, ले जाओ, बाहर जब महाराजा निकलेंगे, तो इनको काजू कतली खिलाना। 
महाराजा ने कहा कि बतासा ही चाहिए, काजू कतली तो खाते ही हैं, आपके यहां से बतासा भी अमृत से भी श्रेष्ठ है, मोक्ष देने वाला है।
क्या बात है, धन्य है यह मरुभूमि। जहां वैभव के साथ जीने वाले राजा को भी पता है, यह बतासा नहीं है, यह अमृत से भी श्रेष्ठ है। वो असली वाला अमृत तो स्वर्ग में जाने पर मिलेगा, यज्ञ करने पर मिलेगा, लेकिन संतों के यहां से जो मिलेगा प्रसाद, उसको खाने के बाद लौटना नहीं पड़ता। दिव्य धाम की यात्रा हो जाती है। मैंने बतासा दिया और महाराजा के मुंह में फंस गया। मैंने महाराजा को कहा, दांत है या नहीं, आज भले किसी को काटा-दबाया नहीं हो, आज बतासा को काटो, दबाओ तो। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ९
कोई मंदिर में जा रहा है, तो धर्म के लिए नहीं, मोक्ष के लिए जा रहा है। यज्ञ में जाओ, दान करो, तो धर्म है, स्नान के लिए जाओ, तो धर्म, तीर्थ में जाओ, तो धर्म, माता-पिता की सेवा धर्म है। सत्संग में आप आए हो, यह कोई धर्म है, यह कोई अर्थ अर्जन है क्या? यहां तो जितना सुनना, देखना, आना, जाना भी मोक्ष के लिए, जो प्रसाद मिलता है, उसे जीभ से लगाना भी मोक्ष के लिए। 
प्रसाद आपकी भूख मिटाने के लिए नहीं है, प्रसाद यश के लिए नहीं है, प्रसाद अखबारों में छपवाने के लिए नहीं है, वह धर्म नहीं है, काम नहीं है, अर्थ नहीं है, वह मोक्ष के लिए है। जब आपने ब्राह्मण को दिया, तो दान हो गया, वही समर्पण यदि ईश्वर के लिए किया, तो भक्ति हो गई। 
पत्रं, पुष्पं, फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
भगवान की उद्घोषणा है, आप हमें पत्र दीजिए, वही हिन्दी में पत्ता है।
पत्र नहीं है, तो पुष्प चलेगा। पुष्प नहीं है, तो फल चलेगा। फल नहीं है, तो जल दीजिए। जल सबसे सुलभ भगवान का निर्देश है। यह सर्वसुलभ है। मरुभूमि में भी लोग अपने साथ जल रखते हैं। वस्तु देने से भगवान में हमारा मन लगता है। हालांकि भगवान को वस्तु की जरूरत नहीं है, भगवान कोई खाते हैं क्या? लोग बोलते हैं कि  भोग लगाया, उतने का उतना रह गया, भगवान तो खाते ही नहीं, झूठे ही लोग भोग लगाते हैं। आपके मन में भी आता होगा कि भगवान तो खाए नहीं। मुझसे भी लोग पूछते हैं।
इसका समाधान आप सुन लीजिए। अपने सनातन धर्म की मान्यता है कि भगवान खाते और पीते नहीं हैं। 
न वै देवा: तु खादन्ति, न पिबन्ति जलं फलम्।
देवता लोग खाते नहीं, पीते नहीं हैं, तो करते क्या हैं? केवल स्वीकार करते हैं। उनको वो भूख नहीं लगी है, जो आप मिटाएंगे। स्वर्ग लोक में खाने के लिए कम है क्या कि आपके बाजरे की रोटी भगवान खाएंगे। 
भगवान वैसे ही स्वीकार करते हैं, जैसे प्रधानमंत्री जोधपुर में आए और यहां उनके अनुयायियों या पार्टी के लोगों या समर्थकों ने देश की समस्या के निदान के लिए समाधान में बल देने के लिए एक उनको ड्राफ्ट दिया, एक राशि दी, पांच करोड़ रुपए की राशि। प्रधानमंत्री एकदम खुश होकर पूरी गरिमा, रोम-रोम से प्रफुल्लित होकर उस धन को लेते हैं, लेकिन आपको ध्यान होना चाहिए। यह धन उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर से रोज अरबों रुपए खर्च होते हैं। करोड़ की राशि प्रधानमंत्री के लिए कुछ नहीं है। भारत सरकार का जो भी खर्च होता है वह प्रधानमंत्री के मार्फत ही होता है। प्रधानमंत्री केवल आपका दिया स्वीकार करता है राष्ट्र के लिए, अपनी पत्नी-बच्चों के लिए नहीं। यह धन प्रधानमंत्री कोष में चला जाता है, इसका एक रुपया भी वह खर्च नहीं करेगा। 
ऐसे ही भगवान केवल स्वीकार करते हैं, भगवान ने स्वीकार किया, तो आपका जीवन धन्य हो गया। जिस नंद-यशोदा के यहां अनेक गायें हैं, लीला के क्रम में भी जिस लाड़ले भगवान के माता-पिता के पास अनेकों गायें हैं, वो गोपियों के पास थोड़े-से मक्खन के लिए जाएगा क्या? 
क्रमश:

Saturday 8 April 2017

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ८
किसी ने तो पुस्तक को ही गुरु बना लिया, पूजने लगे। सनातन धर्म की ही कुछ बातों को लेकर उसमें अपनी कुछ बातों को जोड़ दिया और चल पड़ा पंथ। हम उस धर्म के अनुयायी हैं, जहां किसी मिलावट की गुंजाइश नहीं है। यह मनुष्य की बनाई पोथी या किसी देवता की बनाई पोथी का धर्म नहीं है, पुस्तक का धर्म नहीं है। अनादि वेदों से प्रवर्तित यह धर्म है, जब हमें कुछ नहीं मालूम था, तब भी वेद थे, इसमें एक मात्रा का भी परिवर्तन संभव नहीं है। 
जब एक सृष्टि समाप्त हो जाती है, तो ब्रह्मा जी दूसरी सृष्टि की कल्पना करते हैं और वेदों का अवतरण होता है। तो भगवान ने हमें जीवन दिया है, हम इसे अपने हिसाब से चला रहे हैं। अब हमें सावधान होने की जरूरत है कि हम इसका सबसे अच्छा उपयोग करें। हम अपने आनंद को समुद्र के समान बनाएं। अभी हमारा आनंद बहुत छोटा है, नाशवान है, अभी हमारा आनंद बहुत दुखों से ग्रस्त है। कितना परिश्रम हम करते हैं रोटी, कपड़ा और मकान के लिए, चोरी चकारी, झूठ-सच और न जाने क्या-क्या।
किसानों को आप देखिए, कितना परिश्रम, पानी नहीं हुआ, तो फसल सूख जाए और ज्यादा हो गया, तो फसल पीली हो जाए। एक आदमी कल ही कह रहा था कि भगवान से प्रार्थना कीजिए कि अब वर्षा नहीं हो, कुछ दिनों तक और वर्षा होगी, तो फसलें बर्बाद हो जाएंगी। तब भगवान राजस्थान में एक सप्ताह बरसते रहे थे। इतना पानी नहीं चाहिए यहां लोगों को। यदि साग मिल गया, तो समझो भगवान मिल गए। भगवान की दया से बहुत सारी योनियां निकल गईं, ८४ लाख योनियों में हम घूमते रहे। वैसे ही किशोर अवस्था, वृद्धा अवस्था को प्राप्त कर गए, मृत्यु सागर में समा गए। 
मृत्यु से युक्त ये संसार कैसा है, अत्यंत गहरा है, भयावह है, उसमें जो उतरेगा, वह फिर संभलने वाला नहीं है, उसे डूबना ही डूबना है। 
बार-बार जन्म लेना, मरण को प्राप्त करना, जीवन में जो छोटे-मोटे रास्ते हैं, उनका परिपालन करना, यह चक्र है। इसी चक्र में हम आज तक घूमते रहे। आपसे कोई पूछे कि बतलाइए कि आपने पिछले जन्म में क्या किया, तब कितना धन कमाया, उस धन का अब आपसे कोई सम्बंध है? उसका आपके जीवन में कोई योगदान है? पूर्व जन्म का कोई परिवार नहीं, जो यहां वाला परिवार है, वही नहीं मान रहा, तो पीछे वाला कौन मानेगा? धन्य हैं हम लोग जो पितरों का तर्पण करते हैं। 
करोड़ों लोग पितरों का, जिनका रक्त हमारे शरीर में प्रवाहित हो रहा है, उनकी पूजा करते हैं। पितरों का सबसे बड़ा तीर्थ गया में है, करोड़ों लोग वहां आते हैं। कोई मतलब नहीं, हाथ क्या लगा, यह बतलाइए? कहां जीवन में यह भाव आ पाया कि जो करना था कर लिया, जो पाना था पा लिया, संपूर्णता का भाव तो नहीं आया। जिसको मिलो, वही बोलता है, मैं अधूरा हूं, विवश हूं, मैंने इतना जीवन बिताया, लेकिन कहीं शांति नहीं, कहीं विश्राम नहीं, नहीं लगता कि हमने कहीं सही काम किया, कुछ पाकर यह नहीं लगता कि यही तो इस जीवन से प्राप्त करना है। तभी विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास ने इन सभी भावों को संकलित करते हुए महा संकल्प लिया -
अबलौं नसानी, अब न नसैंहौं। 
पहले के संपूर्ण जीवन नष्ट हो गए, न हम धनी हो पाए, न भोगी हो पाए। अगर हो जाते, तो ये हमें विश्राम देने वाले नहीं थे, मोक्ष की तो बात ही नहीं है। नष्ट हो गए सारे जीवन, लेकिन अब यह अवसर है संकल्प लेने का कि जो हमें जीवन मिला है, उसमें धर्म का भी यथा संभव संपादन करें। जो सुख मिलता है, वह धर्म से मिलता है। बाद में ज्ञान से मिलेगा, भक्ति से मिलेगा। 
कोल-भील्ल सीधे मोक्ष में ही लग गए। वे पहले तो केवल अपराध करते थे। कोई वेद अनुरूप व्यवहार नहीं, मर्यादा नहीं, लेकिन ऐसे कोल-भील्ल सीधे मोक्ष मार्ग में लग गए। अब तो रामजी को कंद-मूल दे रहे हैं। संपूर्ण शक्ति की सेवा में लग गए, यह धर्म नहीं है, यह तो मोक्ष मार्ग है। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ७
हमारा स्वभाव है, हम अपने धन का अवलोकन करते हैं, उसकी गुणवत्ता का चिंतन करते हैं, उसकी उपयोगिता का संकल्प करते हैं, प्रयास करते हैं कि इसके माध्यम से हम क्या प्राप्त करें। हमें अधिकाधिक फल कैसे प्राप्त हों, विशिष्ट फल कैसे हमसे जुड़ें इन सभी भावों का ऊहापोह, इसके लिए तर्क-वितर्क और इसके लिए चिंतन की जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म परंपरा है, उसका हम अवलंबन करते हैं। 
भगवान की कृपा से और जन्म जन्मांतरों के श्रेष्ठ पुण्यों से, उसमें पापों की भी मात्रा है कि यह जन्म हमें मिला और भारत वर्ष में मिला, जो इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ भूमि है, ऐसी भूमि पूरे संसार में कहीं नहीं है। जहां भगवान प्रकट होते हैं, जो ऋषियों की भूमि है, जो गंगा-यमुना-सरस्वती की भूमि है। मातृदेवो भव की उद्घोषणा और संपादन की भूमि है। दुनिया में सभी बच्चे जन्म लेते हैं मां के माध्यम से, लेकिन पश्चिम में लोगों को नहीं पता है कि सृष्टि का जो पालक उत्पादक ईश्वर है, जो सर्वाधार है, वह हमारे घर में माता-पिता के रूप में भी विराजमान है। वह ईश्वर हमारे मंदिर में भी है, वह विभिन्न स्वरूपों में विराजमान है। गौतम बुद्ध स्वयं मूर्ति पूजा का विरोध करते थे, तीर्थंकर भी मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, लेकिन उनके अनुयायियों ने उनके उस महाभाव की महती उद्घोषणा का उनके उस चिंतन का गला घोंट दिया। इतनी मूर्तियां बनवाई गौतम बुद्ध और महावीर की कि मूर्तियों के ढेर लग गए। खूब मंदिर और मूर्तियां अभी भी बनवा रहे हैं। अपने संप्रदाय के अपने पंथ के प्रवर्तक की भावनाओं को ही छोड़ दिया। मुसलमानों ने भी कहा था कि हमारा धर्म व्यापक है, लेकिन मस्जिद बनाने लगे, मजार बनाने लगे। हमारा तो सौभाग्य है कि जो त्रेता में राम जी प्रकट हुए, उनके मंदिर पहले भी थे, अब भी हैं, भगवान शंकर भी हैं और भगवान कृष्ण भी हैं।
भगवान का अवतार केवल एक रूप में नहीं होता है। भगवान तो माता-पिता के रूप में भी, गुुरु के रूप में, ब्राह्मण के रूप में भी प्रकट होते हैं। भगवान पवित्र नदियों के रूप में भी प्रकट होते हैं। ठीक उसी तरह भगवान मंदिर में पूजन, अर्चन का हमें अवसर प्रदान करने के लिए उपस्थित होते हैं। 
इतना बड़ा धर्म, इसकी इतनी व्यापकता और इसके पीछे विशाल विचारों का बल और अत्यंत प्रौढ़ चिंतन की अवस्था। हमारा सौभाग्य है कि भगवान हमारे सेवा लेने के लिए मंदिर में उपस्थित हैं, हम उन्हें काजल लगाएं, माला पहनाएं। यही काम तो मुसलमान लोग मजार में करने लगे, फूल चढ़ाना, अगरबत्ती दिखाना, चादर चढ़ाना। 
एक दिन हमारे यहां तीन मुस्लिम भाई आए, दो हाजी थे और एक काजी। हज की यात्रा जिसने की हो, उसे हाजी कहते हैं और जो प्रशिक्षण का काम करता है मस्जिद में उसे काजी कहते हैं। लोगों ने कहा कि तीन लोग आए हैं मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, बुलाओ। बुलवाया, उन्होंने बहुत शिष्टता के साथ प्रणाम किया। मैंने पूछा, कहां से आए कैसे आए किसने प्रेरित किया आने के लिए, मुझे कैसे जानते हैं और एक साथ मैंने ये प्रश्न किए।
उन्होंने उत्तर दिया, हम आपको जानते थे, आपसे मिलने आए। 
मैंने कहा, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, उदारता के साथ आप पधारे। 
चर्चा प्रारंभ हुई। संत लोग मिलें, तो भगवद् चर्चा होनी चाहिए। किसान मिले, तो किसानी की बात होनी चाहिए। नेता मिलें, तो नेतागिरी की बात, देश की समस्या की बात कि देश में क्या चल रहा है और क्या चलना चाहिए। वर्तमान सरकार क्या प्रयास कर रही है, इसमें उसे कितनी सफलता मिल रही है, उसमें कितनी अड़चने हैं, ये चर्चा राजनीति की है। 
संतों का सबसे बड़ा लक्षण है कि जब वे मिलें, तो आध्यात्मिक विचारों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। आध्यात्मिक वाद-विवाद। एक कथा वाद कथा होती है। छल कथा, वितंडा कथा इत्यादि कई तरह की कथाओं का वर्णन है शास्त्रों में, उसमें सबसे अच्छी और ऊंचे स्तर की कथा वाद कथा कहलाती है।  
तत्व को जानने वालों की, तत्वों को जानने की इच्छा रखने वालों की कथा वाद कथा है। ईश्वर क्या है? मंदिर में जो भगवान हैं, वही हैं या कोई और भगवान है? उन्हें मानने की क्या जरूरत है, नहीं मानेंगे, तो हमारा क्या होगा? कई लोग कहते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते, वे नहीं जीते हैं क्या। वो भी तो खाते हैं, उन्नति करते हैं, गाड़ी से घूमते हैं। इन सबका जो चिंतन करे समाधान करे, दूसरों को मन में स्थापित करे, यही वाद कथा है।
मैंने पूछा, अल्लाह कहां रहते हैं?
उन्होंने जवाब दिया, वह सर्वव्यापक है।
मैंने पूछा, तो फिर मस्जिद की जरूरत क्यों है?
हमसे भी भक्त लोग पूछते रहते हैं, जिस ईश्वर की वाणी नहीं है, जो कभी बच्चों को देखने नहीं आता, वो कैसा पत्थरों जैसा है, जो आता ही नहीं है, यह कौन-सा ईश्वर है। 
उज्जैन में एक महिला ने मुझसे पूछा कि मैं वर्षों तक आपके दर्शन को नहीं आई, क्या आपके मन में आया कि शोभा कहां है, आपको हमारी याद नहीं आई? 
ऐसे प्रश्न होते ही रहते हैं।
तो मैंने मिलने आए हाजी-काजी से पूछा, अल्लाह को आपकी याद आती है या नहीं? वे व्यापक हैं, तो मस्जिद कैसे बनने लगे? कोई मस्जिद बनाई थी या नहीं मोहम्मद साहब ने? यह प्रश्न आपको अपमानित करने के लिए नहीं है, कोई जरूरी नहीं कि हर प्रश्न का उत्तर दिया जाए। 
उन्होंने कुछ नहीं कहा। मैंने पूछा, कहीं ये सनातन धर्म के मंदिरों की नकल तो नहीं है?
वे हंसने लगे कि हां, वही है।
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ६
तुलसीदास तुलना के योग्य नहीं हैं। यह अद्भुत काम है। उसी वैदिक संस्कृति, परंपरा और विकास के संसाधनों का हिन्दी में वर्णन किया गोस्वामी जी ने, जो सबके समझने लायक है। तुलसीदासजी ने कहा - 
जासू राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी। 
वह राजा नरक में जाएगा, जिसकी प्रजा को दुख होगा। अब बताइए, कितने मंत्री और अमुक-अमुक नरक में जाएंगे। कभी-कभी लगता है, जेल में तो अब जगह ही नहीं रहेगी, थोड़े दिनों में नेताओं से भर जाएगा। उस समय आज से सैकड़ों वर्ष पहले उन्होंने कहा, 
जाके प्रिय न राम वैदेही 
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। 
यह बड़ी विचित्र परंपरा है। हमें संपूर्ण विकास के लिए प्रयास करना है। विकास के लिए आप प्रयास करें, तो आप रामायण, सीता और नाना पुराणों से पूछकर करें, मनमानी न करें। अपने भोजन, वाणी, चरित्र, परिवार की मर्यादा को ध्यान में रखें। 
राम जब आए होंगे विजयी होकर अयोध्या में, तब कितनी अपरंपार भीड़ हुई होगी। आज उनका प्राणबगल्लभ आया है 14 साल बाद। कितनी तड़पन होगी, कैसे लोग मिलना चाह रहे होंगेे, गले लगाना चाह रहे होंगे, चरणों में लिपटना चाह रहे होंगे, क्या देना चाह रहे होंगे, क्या मर्यादित स्वरूप है। राम जी ने सबसे पहले दंडवत प्रणाम गुरु वशिष्ठ को किया। राम जी ने ब्राह्मणों को दंडवत किया। माताओं को प्रणाम किया। इसके बाद लक्ष्मण जी ने किया। फिर भरत जी ने और फिर शत्रुघ्न जी ने राम जी को प्रणाम किया। इस क्रम में वर्णन किया गया है। इससे ज्यादा मर्यादा कहां है? बिना मर्यादा के कुछ नहीं चलने वाला। परिवार नहीं, राज्य नहीं, राष्ट्र नहीं, कुछ और चलने वाला है क्या? सारी मर्यादाएं टूट रही हैं। आप पढ़ें, तो समझ में आएगा कि रामराज्य कैसे होता है। निश्चित रूप से इस ग्रंथ को दुनिया का संविधान होना चाहिए और आज नहीं कल, यह जब होगा, तभी रामराज्य आएगा। तभी यह काम बनेगा। कभी भी प्रतियोगिता होगी, तो विश्वगुरु भारत ही होगा।  
यह रामचरित मानस का देश है। हम अपने उस पुराने स्वरूप को प्राप्त करेंगे, इसके लिए प्रयास करें। गोस्वामी जी ने कहा, रावण का इतना बड़ा ऐश्वर्य था, अब एक आदमी रोने वाला नहीं है। त्रेता में भी राम की जयजयकार हुई और आज भी रामजी की ही जयजयकार होती है। 
तुलसीदास जी अपना जीवन रामजी की कृपा से ही मानते हैं। हम लोग भी ऐसा ही मानते हैं, अपने साधन को महत्व नहीं देते हैं। गोस्वामी जी मानते हैं कि हमें जो कुछ भी मिला - 
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।। 
गोस्वामी जी के चरणों में प्रणाम करते हुए हम उनसे कुछ मांग नहीं रहे। जैसे उन्होंने रामजी से मांगा था, वैसे ही हम लोग भी मांग लेते हैं। उन्होंने रामजी से कहा था, हमें कुछ नहीं चाहिए, जैसे कामी पुरुष को नारी बहुत अच्छी लगती है। वह उसको प्यार करता है। उसके लिए बड़ी भावनाएं होती हैं, वो उसके प्रेमास्पद होती है, लेकिन तभी तक जब तक काम की वृत्ति मन में होती है। लोभ की जब तक वृत्ति होती है, तब तक लोभी को धन अच्छा लगता है, हमेशा नहीं अच्छा लगता। यदि काम हमेशा प्रिय होता, तो पति-पत्नी का झगड़ा नहीं होता और तलाक नहीं होता। ईश्वर सबकी आत्मा है और वह हमेशा प्रिय है, परम प्रेमास्पद है। वेदांत का सिद्धांत है - औरों से तो हम थोड़ी देर के लिए प्रेम करते हैं, मतलब से करते हैं। तुलसीदासजी ने कहा कि रामजी आप हमेशा मुझे प्रिय लगे, यही प्रार्थना है। हम सभी लोगों की भी यही प्रार्थना है। 
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।। 
यह विकास की पराकाष्ठा है, बाकी हमें रोटी, कपड़ा तो मिलना ही मिलना है। तुलसीदास को भी मिलता ही था, ऋषियों को भी मिलता ही था। 
तुलसीदास जी ने कहा था - 
घर-घर मांगे टूप पुनि भूपति पूजे पांय, 
सो तुलसी तब राम बिनु सो अब राम सहाय। 
एक दिन तुलसी टुकड़ा मांगता था और आज राजा चरणों की धूलि के लिए लालायित है, तो हमें और आप सभी लोगों को सबकुछ इसी लोक में ही मिलेगा। हमारा धर्म तो ऐसा नहीं है, जो केवल परलोक की बात करता है। धर्म का तो मतलब ही है, जो अभ्युदय भी दे।
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ५
राम हमारी परंपरा के हीरो या महानायक हैं। हमारा कोई दूसरा नेता हीरो नहीं, कोई उद्योगपति नहीं, कोई किसान, कोई क्रिकेटर हीरो नहीं है। संपूर्ण चिंतन परंपरा का, संपूर्ण भारतीय वैदिक संस्कृति का, हमारा जो भी कुछ है, अनुपम है, अनुकरणीय है दुनिया के लिए वह वरदान और अमृत स्वरूप है, उसको कहते हैं राम और कुछ नहीं। जब उस राम के चरित्र का गायन हुआ, तो उसमें सभी की बात आ गई। 
गौतम बुद्ध के बाद यदि कोई समन्वयी उत्पन्न हुआ, तो वह गोस्वामी तुलसीदास हुए, जो राम को लोकनायक के रूप में हमारे सामने लाए। राम परम समन्वयी हैं। कौसल्या और कैकेयी को भी जोड़ देते हैं। उत्तर और दक्षिण को भी जोड़ देते हैं। विश्वामित्र और वशिष्ठ को जोड़ देते हैं। यह समन्वय का काम कोई अमेरिका नहीं करेगा, जब करेगा, तो भारत ही करेगा। 
राम जी ने अयोध्या से एक रुपया नहीं लिया और वही खाया, जो साथ के लोग खा रहे थे। सबके साथ वृक्ष के नीचे सोते थे और दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी को अपनी वानर सेना के साथ मिलकर मार गिराया। यह घटना फिर कहीं नहीं दुहराई जाएगी। यदि दुहराई जाएगी, तो त्रेता में ही दुहराई जाएगी। कलयुग में दुहराई जाएगी, तो भारत में ही दुहराई जाएगी और कहीं नहीं। जब वानर जा रहे थे सीता जी को खोजने के लिए और जब जा रहे थे युद्ध के लिए, तब दोनों बार तुलसीदास लिखते हैं, एक भी सैनिक सहयोगी ऐसा नहीं था, जिसे राम जी ने प्यार से देखा नहीं हो और जिसको पूछा नहीं हो, तुम कैसे हो। यह कितनी बड़ी बात हो गई। अब तो कोई नेता अपने साथी को देखना ही नहीं चाहता। इसीलिए लोकतंत्र की सारी कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। 
राम से सीखिए कि कैसे सेना बनाई जाती है। राम से सब सीखिए। हम जानते हैं कि शिव लिंग की स्थापना भी राम ने की और धनुष बाण से दुश्मन को पराजित भी किया। हम सिर्फ पूजा करना ही नहीं जानते। हम केवल अध्यात्म का व्याख्यान नहीं जानते, हम केवल चरित्रवान और सत्यवादी ही नहीं हैं। हमें यह भी आता है कि कैसे बाण को धनुष पर चढ़ाकर लोगों को राख बना दिया जाता है। हमें ऑपरेशन ब्लू स्टार भी आता है। विश्वामित्र जी कहा करते थे - 
एकत: चतुरो वेदान् 
एकत: सशरं धनु: ।
उभयोर्हि समर्थोस्मि
शास्त्रादपि शरादपि।।
यह रामजी का महत्व है और कितनी मर्यादा है। महर्षि वाल्मीकि ने कहा था कि मैं राम चरित्र नहीं लिख रहा हूं, जानकी चरित्र लिख रहा हूं। सीता का बड़ा त्याग है। मैं उनसे बड़ा प्रभावित हूं, इसीलिए वाल्मीकि रामायण के लिए कहा उन्होंने - महान चरित्र सीता का मैं लिख रहा हूं। गोस्वामी जी ने एक बड़ी परंपरा को तोड़ दिया। गणेश जी की वंदना से कोई काम शुरू होता है सनातन धर्म में, गोस्वामी जी ने कहा कि यह परंपरा नहीं चलेगी। स्त्री की वंदना से चलेगी - 
मंगलानां च कत्र्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ... भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
यह नई बात हो गई। वंदे वाणीविनायकौ। तमाम परंपराओं को मारा कि राख कर दिया। सनातन धर्म की भी ढेर सारी परंपराओं को। कालिदास को उपमा का कवि कहते हैं। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं इनको उपमा देने नहीं आती है। नहीं तो संस्कृत में परंपरा थी - 
उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थ गौरवं, दण्डिन: पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणा:। 
ये पूरा मंत्र जपते हैं संस्कृत जगत के लोग। उन्होंने कहा कि नहीं गोस्वामी जी को जैसी उपमा आती है, कालिदास को नहीं आती। अपने रघुवंश महाकाव्य में कालिदास ने वंदना की, कहा कि पार्वती जी से युक्त भवानी शंकर की मैं वंदना करता हूं। उन्होंने कहा कि जल और तरंग को जो सम्बंध है, वही सम्बंध भवानी और शंकर का। वही सम्बंध राम और सीता का है, दोनों एक ही हैं, जल और तरंग में कोई भेद नहीं है। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ४
मनु ने कहा - 
एतद्देश प्रसुप्तस्य सकाशादग् जन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रन् शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्व मानवा:।।
संपूर्ण संसार के लोगों को इस देश के लोगों ने चरित्र की शिक्षा दी। विश्व गुुरुत्व तब आया। विश्व गुुरुत्व गोमांस खाकर आएगा क्या? भारत-पाकिस्तान को लड़ाकर हथियार बेचने वाले को विश्व गुरुत्व मिलेगा क्या? रोज पत्नी बदलने वालों को आएगा क्या? ऐसे में आना ही नहीं है, जिसको ना खाने का, ना बैठने का, ना बोलने का ढंग पता है।  
भगवान की दया से वही ढंग या पद्धति रामचरितमानस के रूप में प्रकट हुई। एक श्लोक है, जो वाल्मीकि रामायण के वंदना के क्रम में कहा जाता है। उसमें कहा गया है कि वेदों का जो परम प्रतिपाद्य है, परम रहस्य है, जब राम के रूप में प्रकट हो गया। वेदों ने सोचा हमारा सारा सार तत्व तो प्रकट हो गया, अब हम क्या करें। अब हमारा कोई काम ही नहीं रहा। मेरा जो रहस्य था, प्रतिपाद्य था, मेरा जो सबकुछ था, वह चला गया राम के रूप में। तो हम अब क्या करें, तो वेदों ने कहा कि वाल्मीकि के माध्यम से रामायण के रूप में प्रकट हो जाते हैं। तो वेद ही रामायण के रूप में प्रकट हो गए। 
वेद: प्राचेतसादासीद् साक्षात् रामायणात्मना। 
वाल्मीकि रामायण के रूप में पहली बार वेदों के बाद में किसी लौकिक भाषा में यदि कोई ग्रंथ बना, महाकाव्य बना, इतनी बड़ी अभिव्यक्ति हुई, उसी का नाम वाल्मीकि रामायण है। जैसे वेदों का जोड़ नहीं, वैसे वाल्मीकि रामायण का नहीं, यह इतिहास है। रामायण इतिहास है, वाल्मीकि भी तो तुलसीदास हो गए। यह कथन महा भक्तमाल का - 
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बालमीकि तुलसी भए। 
कलयुग के जो कुटिल जीव हैं, तमाम दुर्भावों से ग्रसित। कलयुग में उनको ठीक करने के लिए महर्षि वाल्मीकि तुलसीदास के रूप में आ गए। ये भक्तमाल नाभादास की रचना है। रामानंद संप्रदाय के ही वे महात्मा थे। सीकर के पास एक रैवासा धाम है, वहां पर उनका प्राकट्य हुआ। कोई ज्ञान नहीं, कोई शिक्षा नहीं, केवल संतों की सेवा से उनको दिव्य ज्योति प्राप्त हुई और उन्होंने एक तरह से हिन्दी का अतिप्राचीन ग्रंथ भक्तमाल का निर्माण किया। तो देखिए वेदों से वाल्मीकि रामायण पर आ गए। वाल्मीकि रामायण से तुलसीदास जी पर आ गए। वही धारा जो गंगा गोमुख में प्रकट हुई थी और ना जाने कहां-कहां से आ रही है, आज तक लोगों को पता नहीं चला। जैसे कब से वेद और कब से संसार चला, ये पता नहीं चल रहा है। अनादि है, वह धारा कल्याण की है। जो सही और सबके लिए कल्याण की धारा है, वह वाल्मीकि रामायण के रूप में प्रकट हुई। वाल्मीकि रामायण से वह तुलसीदास के रामचरित मानस के रूप में हुई। हम लोग केवल मन में बात रखने वाले लोग नहीं हैं। हम कच्चा ज्ञान वाले नहीं हैं। हम परिपक्व ज्ञान के लोग हैं। चरित्र में ज्ञान को उतारने वाली हमारी परंपरा है और उसके बाद दूसरों को देने की यह परंपरा कल्याण का सबसे बड़ा मार्ग है। सभी क्षेत्रों में गोस्वामी जी ने इस बात को प्रकट किया। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ३ 
यहां विकास का साधन वो नहीं है, जो कार्ल माक्र्स वाला है। विकास का साधन वह नहीं है, जो अल्बर्ट आइंस्टीन वाला है। विकास का साधन वह नहीं है, जो यहां-वहां दिख रहा है, तमाम चीन, मांस खाना, अवैध जीवन जीना और जीवन में कहीं कोई वंदन नहीं, कोई मर्यादा नहीं, केवल खाना और उसके लिए कैसे भी कमाना। गोली चलवाकर, युद्ध करवाकर। कैसे भी वस्त्र पहनकर, कैसे भी बोलकर, कैसे भी सोकर - ऐसा विकास कोई विकास नहीं है। ये कौन-सा विकास है? किसी भी समाज में यह नहीं चलेगा कि मेरी पत्नी मेरे सामने से उठकर दूसरे के साथ चली जाए। चलेगा क्या? यह चीन में भी नहीं चलेगा। जब बिल क्लिंटन ने अपने ऑफिस की किसी महिला के साथ मन जोड़ा, तो उनकी बड़ी निंदा हुई। यहां तो भतृहरि ने जब अपनी पिंगला को देखा, रानी पिंगला को कि मेरे नौकर के साथ ही मन बना रही है, तो उन्होंने संन्यास ले लिया। 
यां चिन्तयामि सततं... वैसा विरक्त क्या बात है। कहा कि मैं तो इसे जी जान से मानता हूं और यह मेरे नौकर के साथ ही पार्टी बना रही है। नौकर वैश्या के साथ पार्टी बनाए हुए था और वैश्या महाराज भतृहरि के साथ...। राजा ने जो दिया था पत्नी को, पत्नी ने अपने प्रेमी को, प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को और प्रेमिका ने राजा को दे दिया। यह बहुत बड़ी घटना हुई, लेकिन केवल भतृहरि को वैराग्य हुआ। यहां बिल क्लिंटन की उस अवैध रीति से जो प्रेम प्राप्ति का, सुख प्राप्ति का जो अत्यंत ही अमर्यादित स्वरूप है। पूरा अमेरिका व गोमांस खाने वाले भी खड़े हो गए कि ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर नहीं चाहिए। व्हाइट हाउस खाली करो। बिल क्लिंटन को क्षमा याचना करनी पड़ी। 
वेदों की स्थापना ही चरित्र के लिए हुई है। हर ऐसे मूल्यों की स्थापना वेदों ने की, जिसकी जरूरत अनादि संसार में हमेशा रही है और वही विकास का सबसे बड़ा साधना था, है और रहेगा। 
जो चाहे, वह खा लिया, जो चाहे पहन लिया, कैसे रह रहे हैं लोग। यह जो विकास की पद्धति पूरी दुनिया में छाई हुई है। विज्ञान, भौतिक अनुसंधान। बम बना, नागासाकी, हिरोशिमा में लाखों लोग मारे गए। 
राम मनोहर लोहिया जी ने एक बार आइंस्टीन से पूछा कि आपने जो अनुसंधान किया और उससे यह जो बम बनाया है, उससे कैसा महसूस कर रहे हैं। बताते हैं कि जवाब में आइंस्टीन रोने लग गए। 
यह विकास की जो सबसे अच्छी पद्धति थी। सबसे अच्छे साधनों का जो संस्थापन था और वह ईश्वर के द्वारा, वेदों के द्वारा, वेद के व्याख्यान द्वारा ही हमारा साहित्य आगे बढ़ा और हम लोग उसी मार्ग के लोग हैं। तभी तो मनु ने कहा कि इस देश के लोगों ने, इस देश के ब्राह्मणों और महर्षियों ने चरित्र की शिक्षा पूरी दुनिया को दी और विश्व गुरुत्व अर्जित हुआ था। केवल आपको पहला ज्ञान हो जाए, जो ज्ञान की प्राथमिक अवस्था है परोक्ष ज्ञान, उससे काम नहीं चलेगा, वह रावण को भी था। ज्ञान का परिपक्व स्वरूप होना चाहिए, जिसको अपरोक्ष ज्ञान कहते हैं, उसके बाद ज्ञान चरित्र में उतरना चाहिए। ज्ञान जब चरित्र में ही नहीं आया, तो कैसे चलेगा। महाभाष्य ने ज्ञान की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है। इसके बाद ही आप ज्ञान दीजिए। 
क्रमश:

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - २ 
लोगों ने तो ईसा मसीह को लटका दिया। कई अहं ब्रह्मास्मि कहने वाले सूफी संतों को मुस्लिम परंपरा के लोगों ने काट-काटकर जलाकर समुद्र में फिंकवा दिया। तमाम हत्याएं हुईं धर्म के प्रचार के लिए। यही हाल ईसाई धर्म का है, लेकिन धन्य है हमारा धर्म, हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा, हमारा सबकुछ, जो इन चार्वाकों को भी हमने मारकर गंगा में नहीं बहाया। ऐसे चार्वाक समर्थक, जो परलोक को नहीं मानते, जो वेदों को नहीं मानते, जो मातृ-पितृ की सेवा भावना को नहीं मानते। पितरों को नहीं मानते। जो देवताओं के लोक को, ब्रह्म लोक को नहीं मानते। ये सब बातें बौद्धों और जैनों ने भी कीं। जैन धर्म में भी कहा गया। उन्होंने कहा कि वेदस्य त्रय: कर्तार: - वेदों को बनाने वाले तीन लोग थे - धूर्त, पाखंडी, निशाचर। इधर देखिए, यहां हम कितने सहिष्णु हैं, कितने उदार हैं। कितना हमारा धैर्य है। हमें विश्वास है कि आज नहीं तो कल, ये सब राम भाव में आ ही जाएंगे। वेद भाव में, परलोक भाव में, आस्थाओं में ये तमाम तरह की परंपराएं दुनिया में चलीं, अभी भी चल रही हैं और आगे भी चलेंगी। उनमें हमें ये बात जानने की जरूरत है कि सही विकास कौन और विकास का सही साधन कौन। सही विकास यदि हमारे पास नहीं है, तो हम चोरी करें क्या, बैंक लूटें क्या, हम चारा घोटाला करें क्या, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला करें क्या? विकास का कौन-सा साधन सही है? विकास का साधन वही है, जो वेदों ने कहा, जो ईश्वर का श्वांस-प्रश्वांस बोध है, अनादि वेद है। जब लोगों के पास में एक पन्ने, पत्ते पर भी लिखा हुआ कुछ नहीं था, तब हमको भगवान ने इन वेदों को दिया था। पूरी मानवता को दिया था। केवल ब्राह्मणों को नहीं, केवल भारतवासियों को नहीं, केवल सनातन धर्म के लोगों को नहीं, केवल जोधपुर, बनारस वालों को नहीं, संपूर्ण संसार के लोगों के लिए भगवान ने अपने श्वांस-प्रश्वांस पुत्र वेदों को दिया। कहा, सत्यम वद। क्या कोई ब्राह्मण ही सत्य बोले और बनिया झूठ बोलता रहे? सभी लोगों को सत्य बोलना चाहिए। जैसा है, वैसा ज्ञान होना और वैसा ही बोलना, ये सत्यम वद है। जो वस्तु जैसी है, उसका वैसे ही सही ज्ञान होना और उसको वैसा ही बोलना। यदि गोमांस खाने वाला भी झूठ बोलेगा, तो उसके लिए लोगों को नफरत होगी, उसके परित्याग का महासंकल्प होगा, निश्चित रूप से एक बार झंझावात आ जाएगा कि नहीं ये झूठा नहीं चलेगा। झूठ को कोई नहीं चाहता। मर्डर करने वाला, लूटने वाला, तमाम अवैध धंधा करने वाला पति भी चाहता है कि जब मैं घर जाऊं, तो मेरी पत्नी सत्य बोले। सत्य ईश्वर का बड़ा प्रतिष्ठित स्वरूप है। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म... वेदों ने कहा, ईश्वर सत्य है। तीनों कालों में जो बाधित नहीं होता, उसे सत्य कहते हैं। तो भगवान की दया से वो सभी ज्ञान प्राप्त हुए। उनकी व्याख्या स्मृति के रूप में हुई। उनका व्याख्यान पुराणों के रूप में हुआ। उनका व्याख्यान इतिहास के रूप में हुआ। ये चार हमारे सनातन धर्म के अंग हैं - वेद, स्मृति, पुराण और इतिहास। 
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्। 
ये सरलीकरण है। इसी का सुग्राह्य स्वरूप है, इसी का परिष्कार है। ये कोई ऐसे ही कल्पित नहीं है। कालिदास ने तो कहा कि पुराणमित्येव न साधु सर्वम्, लेकिन वो दूसरे अर्थ में पुराण है। पुराण तो वेदों की ही व्याख्या हैं। रामायण तो वेदों की ही व्याख्या है। महाभारत तो वेदों की ही व्याख्या है। मनु स्मृति को तो यहां तक कहा जाता है कि वेद वाणी को जो महत्ता, प्रामाणिकता, प्रेरकत्व प्राप्त है, जो उसको गरिमा प्राप्त है, वो सब मनु वाणी को भी प्राप्त है। उसकी बड़ी महिमा है। महाभारत काल वगैरह भी मनु को उद्घृत करते हैं। 
क्रमश:

Friday 7 April 2017

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

(महाराज के प्रवचन से...) 
भारतीय चिन्तन परंपरा में कहा जाता है कि हम ब्रह्म के अंश हैं और ब्रह्म की अनेक व्याख्याएं हैं, उसमें सुप्रसिद्ध दो व्याख्याएं हैं कि जो विकासशील हो और महान हो, उसे ब्रह्म कहते हैं। 
बृहत्वाद् बंृहणत्वाच्च ब्रह्म इति हि गीयते। 
ये व्युत्पत्ति है ब्रह्म शब्द की। जो निरंतर विकासशील हो, जो महान हो, यह प्रवृत्ति, यह जो संकल्प और स्वभाव है, यह हम लोगों का भी है। ब्रह्म ने तो अपने अव्यक्त स्वरूप को व्यक्त कर दिया, जिसका आप दर्शन करते हैं। आकाशकाल, पृथ्वी जलवायु तमाम ग्रह नक्षत्र तारे, जो भी संसार में आपको दिखाई दे रहा, वो ब्रह्म का ही तो विकास है। एकोहं बहुस्याम: प्रजायेय यह उसकी उद्घोषणा है, उसी क्रम में हमने भी अपने को विकसित किया। हम लोग किसी जमाने में किसी काल में मां के गर्भ में होंगे। बहुत छोटा हमारा स्वरूप होगा, रज-वीर्य कितना छोटा होगा, लेकिन बढ़ते-बढ़ते हम सभी लोगों का आकार बढ़ गया, बल बढ़ गया, ज्ञान बढ़ गया, हमारी पहचान बढ़ गई। हमारा प्रभाव बढ़ गया, हमारा स्वभाव बढ़ गया, हमारा परिवार बढ़ गया, लेकिन हमारा मन अभी तृप्त नहीं हो रहा है कि हम कहां तक बढ़ें, शरीर कितना बड़ा कर लें। अपने प्रभाव का उपयोग कहां तक हो, कहां तक प्रभाव, परिवार, धन, सांसारिक संसाधनों को कितना बढ़ाया जाए। यह विकास की जो कामना है, ये परिशांत नहीं हो रही है, क्योंकि हम ब्रह्म के अंश हैं, जो निरंतर विकासशील है। यह संसार के लोगों के लिए आज की समस्या नहीं है, आज की चाह नहीं है। अर्थशास्त्री लोग पढ़ाते हैं कि हमारी आवश्यकताएं अनंत हैं और उनका समाधान आदमी करना चाहता है, लेकिन सामान्य लोग तो दाल, रोटी, कपड़ा, मकान की ही बात करते हैं। सभी लोगों को यदि रोटी, कपड़ा, मकान मिले। जो यह विकास का क्रम है दुनिया का निश्चित रूप से सभी लोग इससे अचंभित, विस्मित और आश्चर्यचकित हैं, इतना विकास हो गया, लेकिन अभी सभी लोगों के पास कपड़ा नहीं है, मकान नहीं है। भोजन भी व्यवस्थित, संतुलित शरीर के लिए पौष्टिक, चित्त, बुद्धि, मन को सही स्वरूप देने वाला स्वास्थकर स्वरूप देने वाला, ये अभी नहीं हो पा रहा है। अमेरिका जैसे देश में भी लोगों को रोग निवारण के सही संसाधनों का लाभ नहीं मिल पाता है। बहुत महंगी है वहां की निदान पद्धति। ऐसा आप लोगों ने सुना और पढ़ा होगा। ऐसी स्थिति में दुनिया के सभी लोग अपनी विकास यात्रा में संसाधनों की खोज में अनेक तरह के चिंतन, उसका प्रयोग आदि करते रहे हैं और आगे भी करेंगे। 
विकास की यह जो अविच्छिन्न परंपरा है और हर आदमी के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में प्रवाहित होने वाली यह बड़ी लंबी है। हमको भी विकास चाहिए। हमने संन्यासी जीवन विकास के लिए धारण किया। कोई उग्रवादी जीवन, आतंकवादी का जीवन, चोरी का जीवन, लंपट का जीवन और तमाम तरह की दुकानों, खेती का, अन्य सभी जीवनों में भावना यही है कि विकास हो। लोगों को याद होगा, बिन लादेन भी अपनी दुनिया का हीरो हो गया था। बहुत दिनों के बाद एक बड़े आतंकवादी के रूप में उसका नाम लिया जाने लगा। सद्दाम हुसैन का नाम लिया जाने लगा। कभी मुस्लिम भाइयों के घर में इनके चित्र लगते थे। बिन लादेन पर गर्व था इन लोगों को, किसी जमाने में सरदार लोगों को भी भिंडरांवाला पर गौरव होने लगा था। ये परंपरा के दूषण हैं, केवल आपको यह कह रहा हूं कि देखिए, विकास के नाम पर क्या-क्या हुआ है। धन आएगा, भोग मिलेगा, एक पत्नी को कौन कहे, बहुत-सी पत्नियां मिलेंगी। एक आदमी की जयकार को कौन कहे, बहुत लोगों के जयकार मिलेंगे। गाड़ी, घोड़ा, मकान। स्वर्ण मंदिर पर ही कब्जा कर लिया भिंडरांवाला ने। लाल मस्जिद पर ही कब्जा कर लिया आतंकवादियों ने, महिलाएं निकलीं उसमें से, आपने सब पढ़ा होगा। ये सब विकास के क्रम में हैं, लेकिन अब ये चिन्हित तो होना ही चाहिए कि विकास का सही मार्ग क्या है। शराब पीने से भी आनंद मिलता है और घी खाने से भी आनंद मिलता है। दोनों में शरीर के लिए पौष्टिक कौन है। अपने यहां एक दर्शन पढ़ाया जाता है चार्वाक दर्शन। 
चार्वाक वाले बोलते हैं - यावज्जजीवेत् सुखं जीवेत् यानी जब तक जीवित रहिए सुख से जीवित रहिए। नहीं पैसा हो, तो ऋण लेकर घी पीजिए। ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत्। मरने के बाद कौन-सा शरीर, यहीं सब राख हो जाएगा, मिट्टी में मिल जाएगा। ना कोई पहले था ना कोई बाद में होगा। यहीं सब हैं, आनंद से रहिए। 
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:। 
क्रमश: 

समर्पयामि

सैनाचार्य स्वामी अचलानंदगिरी जी महाराज
पीठाधीश्वर, अखिल भारतीय सैन्य भक्ति पीठ
सदा स्मरणीय, पूजनीय जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज ने वर्ष १९९२ में मुझ पर असीम कृपा की, मुझे सैनाचार्य बनाया। आपने साफ कहा कि हम इनको ही सैनाचार्य बनाएंगे, ये बाल ब्रह्मचारी हैं। मैंने कहा, जूना अखाड़े का साधु हूं, नशा भी करता हूं, किन्तु मुझे विश्वास है कि आप जैसे महात्मा का हाथ लगेगा, तो मेरी बुराइयां पीछे छूट जाएंगी। आप जगद्गुरु हैं, आप समर्थ हैं। आपने कहा कि ७०० साल से सैनाचार्य की पदवी खाली है। आप योग्य हो, मेरे मन में जंच गई है, मैं आपको सैनाचार्य बनाऊंगा। तब स्वामी जी जोधपुर आए हुए थे और उसके बाद रैवासा गए थे, राघवाचार्य जी भी साथ में थे। स्वामी जी ने कहा, लोग आपको गलत बात कहेंगे, मैं साधु हूं, खरी बात कहता हूं।  
स्वामी जी से मिलते ही मुझे लगा कि ये अत्यंत उच्च कोटि के संत हैं, मेरे मन को आपने मोह लिया। आपका बहुत प्रभाव पड़ा। आपसे मिलते ही मेरी कई बुराइयां छूट गईं। यह हमारे के लिए सौभाग्य की बात है कि देश में स्वामी रामनरेशाचार्य जी जैसे गुरु विराजमान हैं। रामानंदाचार्य पीठ के प्रसिद्ध उद्घोष - जात पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे से हरि का होई - को स्वामी जी ने संसार में साकार कर दिखाया है। पिछड़ों-दलितों के लिए आपके मन में बड़ी चिंता है, बहुत लगाव है। आपने वाल्मीकि समाज के लोगों को भी भेदभाव से बहुत ऊपर उठकर गले से लगाया। आपको आम लोगों और भक्तों के बीच जाति आधार पर भेद करना नहीं आता। आप भक्त का केवल मन देखते हैं। सैन समाज को गले लगाने वाले स्वामी जी कोई सामान्य साधु नहीं हैं। संत समाज में आप सर्वोच्च रूप से विराजमान हैं। 
लोग आज आचार्य की पदवी के लिए लाखों रुपए लेते हैं, मठ व पद पाने के लिए खूब खर्च करते हैं, लेकिन मुझसे आपने कुछ भी नहीं लिया। बस सवा रुपया लेकर मुझे आचार्य बना दिया। मुझे याद है, आपने कहा था कि मैं पौधा लगा रहा हूं, पैसा नहीं ले रहा, मुझे एक पैसा नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि अचलानंद जी समाज के लिए कीर्ति पैदा करेंगे। आपकी कृपा से आज सब देख रहे हैं, सब कुछ है मेरे आसपास। आस्था है मेरे मन में। सेवा में लगा हूं। मेरा भाव है आपके लिए। आपके चरणों में ही मेरा तीरथ है। 
मुझे याद है, जब सैनाचार्य की पदवी की चर्चा चल रही थी, तब एक और साधु आए थे मंदसौर से। उन्होंने दावा किया था सैनाचार्य बनने के लिए, लेकिन स्वामी जी ने मना कर दिया। स्वामी जी ने कहा, मुझे एक बाल बह्मचारी को ही सैनाचार्य बनाना है। पूरी जांच के बाद मैंने निर्णय किया है। उस साधु ने सैनाचार्य बनने के लिए पैसे भेंट करने की कोशिश की थी, स्वामी जी ने उसे बाहर निकाल दिया कि बाल बच्चेदार आदमी कैसे पदवी लेगा। 
सैनाचार्य बनने के बाद मैं पूरे मन से काशी स्थित रामानंदाचार्य पीठ श्रीमठ से जुड़ गया। मेरे अंदर जन्म से जो वैराग्य है, वह रामापीर की मेहरबानी है। राम और कृष्ण एक ही हैं। रामापीर बाबा रामदेव जी भगवान कृष्ण के ही अवतार थे। भगवान कृष्ण के अत्यंत प्रिय भक्त महावीर अर्जुन के ही वंश में बाबा रामदेव का अवतरण बताया गया है। वे अर्जुन की बहत्तरवीं पीढ़ी में हुए। बाबा रामदेव ने अपने समय पूरे समाज को एक कर दिया था, जैसे भगवान राम जी ने अपने समय में किया था। उन्होंने भी सबको गले लगाया। उनका नाम राम से जुड़ा था, लेकिन वे पीर भी कहलाए। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम, जाति भेद आदि को नहीं माना। यह बतलाना चाहता हूं कि रामापीर बाबा रामदेव का जन्म जैसलमेर जिले में पोकरण के समीप रामदेवरा में हुआ था। उनकी जन्मभूमि रामदेवरा में आज दुनिया का सबसे बड़ा मेला लगता है। प्रदेश-देश से लाखों लोग सावन-भादो महीने में पैदल ही रामदेवरा दर्शन को पहुंचते हैं। ऐसा धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक मेला देश में किसी संत भगवान के लिए नहीं लगता। 
मैं जैसे बाबा रामदेव को देखता हूं, वैसे ही राम जी को देखता हूं। उन्हीं की कृपा से आज समाज की हर संभव सेवा करता हूं। भगवान की कृपा है कि मुझे समाज के लिए कुछ करने का अवसर जीवन मिला है। लोगों को अच्छाई अर्थात राम का मार्ग दिखाने में लगा हूं।
मैं आपके साथ था, साथ हूं और साथ रहूंगा। आपने कृपा करते हुए वर्ष १९९४ में आपने जोधपुर में चातुर्मास किया था, दूसरी बार २०१५ में किया। यह मेरे लिए भी बड़े सौभाग्य की बात है। आपने अवसर दिया। मैं आपको तन-मन-धन कुर्बान कर चुका हूं। आपके चरणों में ही मेरा सिर रहेगा। 
स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज राम ही हैं। ऐसे महात्मा बहुत कम हैं, जिनकी बोली में शक्ति है। ऐसे महात्माओं के प्रति अब लोग जगने लगे हैं। उनका प्रवचन सुनकर आनंद की प्राप्ति होती है। जिस दौर में बाबा लोग चारों तरफ बदनाम हो रहे हैं, धर्म के पालन से भटक रहे हैं। वहां स्वामी जी आदर्श हैं। आपसे संपूर्ण समाज ज्ञान ले सकता है, यह ज्ञान-संस्कार किसी को टीवी देखने से नहीं मिलता, यह ज्ञान जगह-जगह भटकने से नहीं मिलता, आपके पास मिलता है। स्वामी जी एकदम खरे हैं, उनका ज्ञान टीवी के भरोसे नहीं है। उन्हें प्रचार भी नहीं चाहिए। उन्हें समाज में सुधार चाहिए, जिसके लिए वे जुटे हैं दिन रात। ब्रह्म समान हैं, मेरी आत्मा के अंदर विराजमान हैं और सदा रहेंगे।  

लोक संत, राज्य अतिथि - मध्य प्रदेश
स्थान - युगल जोड़ी श्री बाबा रामदेव मंदिर, 
राइकाबाग, जोधपुर, राजस्थान

नैवेद्यम्

महामहोपाध्याय देवर्षि कलानाथ शास्त्री
राष्ट्रपति सम्मानित संस्कृत विद्वान
अनेक सहस्राब्दियों के सांस्कृतिक इतिहास वाले भारत देश में मध्यकाल में जो भक्ति की भागीरथी बही उसने समस्त देश को ऐसे माधुर्य में भिगोया कि सदियाँ बीत जाने पर भी उसी रस में देश रचा-बसा है आज भी। भक्ति की भागीरथी दक्षिण से उद्गत हुई और उत्तर भारत में उसे स्वामी रामानन्द लाए, यह जानकारी प्रसारित करने वाला एक दोहा लोककण्ठ में रचा-बसा है-
भक्ती द्राविड ऊपजी ल्याए रामानंद।
परगट करी कबीर ने सप्त द्वीप नव खंड॥
मैं इस दोहे की इस प्रकार व्याख्या करता हूँ कि भक्ति आन्दोलन के सूत्रधार प्रमुख आचार्य दक्षिण भारत में हुए - रामानुजाचार्य तमिळनाडुु में, मध्वाचार्य कर्नाटक में, निम्बार्काचार्य महाराष्ट्र में। वल्लभाचार्य तैलङ्ग कुल के थे। अद्वैत दर्शन के प्रवर्तक शङ्कराचार्य केरल के। हिन्दीभाषी क्षेत्र में भक्ति भागीरथी को लाने वाले वाराणसी के रत्न रामानन्दाचार्य थे जिनके कारण भक्ति ने हिन्दी भाषा को रससिक्त किया, कबीर ने उसी भाषा में लिखा। उत्तर भारत में आते ही यहाँ के समूचे जनजीवन को अपने रंग में रँग लिया। अपार-साहित्य की सृष्टि ब्रज, अवधी, भोजपुरी, हिन्दी, उर्दू आदि भाषाओं में हुई। इस प्रकार ही तो रामानन्द द्रविड में उपजी भक्ति को उत्तर में लाए। 
तबसे इतिहास ही बदल गया। रामानन्दाचार्यजी का मुख्य पीठ पञ्चगङ्गाघाट, काशी में रहा जो आज भी फल-फूल रहा है। उनके संप्रदाय के अनेक द्वाराचार्य हुए जो सारे भारत में फैल गए। राजस्थान के अग्रदासजी (रैवासा) के शिष्य नाभादासजी ने जो ‘भक्तमाल’ लिखी उसने भक्तों का इतिहास अभिलिखित कर भक्ति को अमर कर दिया। स्वामी रामानन्दाचार्य का मूल पीठ ‘श्रीमठ’ गङ्गा के घाट पर पाँच-छह सदियों से रहा है जिसे पञ्चगङ्गा घाट के नाम से जाना जाता है। सदियों से इसका आकार और कलेवर संक्षिप्त ही था। बीसवीं सदी के आखिर में इसके कर्णधार जब स्वामी रामनरेशाचार्यजी बने तो कुछ दशकों में ही इन्होंने उसके कलेवर को भी विशाल बनाया, अनेक योजनाएँ चलाकर इसकी श्रीवृद्धि की, साथ ही संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में रामानन्दाचार्यजी के जीवन और सन्देश पर अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन करवाकर समस्त देश में इसकी दुन्दुभि बजा दी। हरिद्वार में श्रीराममन्दिर की एक विशाल योजना द्वारा इतिहास बनाने का उपक्रम प्रारंभ कर दिया। 
कालजयी कीर्ति के धनी जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजी के मुख्य पीठ पर दर्शन के मनीषी, वक्तृत्व के कुशल सामथ्र्य के धनी, गुणग्राहक, विद्वानों के पारखी स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी का आना एक नए इतिहास का प्रारंभ जैसा लगने लगा। दो दशकों से मैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का आकलन करता रहा हूँ। 
उन्होंने प्रतिवर्ष एक विद्वान् को बड़ा शिखर पुरस्कार (जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पुरस्कार) देकर सम्मानित करने की जो योजना चलाई उसके कारण सन्तों की जमात के साथ ही विद्वानों के जमघट का भी नया इतिहास बनने लगा। रामनरेशाचार्यजी स्वयं काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय से न्याय-वैशेषिक दर्शन की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं, विद्वानों की परख इन्हें खूब आती है। कौन नहीं जानता कि पिछले दशकों में जहाँ भी ये जाते थे, विद्वत्सङ्गम होता रहता था। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (अब स्वर्गीय), आचार्य रामकरण शर्मा, श्री रामबहादुर राय, आचार्य रामयत्न शुक्ल, आचार्य शिवजी उपाध्याय, आचार्य प्रभुनाथ द्विवेदी, आचार्य नरोत्तम सेनापति, आचार्य जयकान्त शर्मा, प्रो. सतीश राय आदि अनेक मूर्धन्य विद्वानों का जमघट सदा इनके चारों ओर रहा है। जहाँ भी इनका चातुर्मास्य अनुष्ठान होता है, किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचारगोष्ठी-व्याख्यानमाला आदि कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं, यह मैं दो दशकों से देखता आया हूँ। आज भी वही स्थिति है। इनकी प्रेरणा से प्रकाशित ग्रन्थों (जैसे स्वामी रामानन्दाचार्य के जीवन पर लिखे अनेक हिन्दी उपन्यास, उनके अंग्रेजी अनुवाद, लेख संग्रह आदि) के बारे में मैं संकेत कर ही चुका हूँ। 
जो लोग विद्वत्प्रवर स्वामी रामनरेशाचार्यजी के प्रवचन सुन चुके हैं वे भलीभाँति जानते हैं कि इनके चिन्तन और मार्गदर्शन में हमारी सांस्कृतिक परम्परा के मूल सिद्धान्त पूरी तरह समाहित रहते हैं किन्तु उनमें पुराणपंथी पूर्वाग्रह या लकीर पीटने मात्र का धर्मोपदेश नहीं रहता अपितु वर्तमान परिवेश में देश के लिए, मानव के लिए, आज के समाज के लिए क्या वांछनीय है, क्या हितकर है उसकी अकृत्रिम, सहज और शालीन प्रस्तुति होती है। मैंने इनके विचारों पर आधारित कुछ विषयों के विवेचन करने वाली पुस्तिकाएँ भी देखी हैं। वे किसी कट्टरपंथी धर्मगुरु के उपदेशों का आभास नहीं देती, सामयिक महत्त्व के चिन्तन का प्रमाण देती हैं। ऐसा ही यह प्रवचन संग्रह है ‘अबलौं नसानी, अब न नसैहौं’। इसकी अवतारणा के लिए प्रबुद्ध चिन्तक, लेखक, पत्रकार और सम्पादक श्री ज्ञानेश उपाध्याय जी बधाइयों के पात्र हैं। 
इस प्रवचन संग्रह को देखकर आज के बुद्धिजीवी का मानस, आज के प्रबुद्ध समाज का मन भगवान् श्रीराम के चरणों में यही प्रार्थना करेगा कि श्रीमठ के कर्णधार विद्वत्प्रवर स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी की वाणी का प्रसाद हमें अनन्त काल तक इसी प्रकार मिलता रहे, इनकी जनहितकारी योजनाएँ इसी प्रकार फलती-फूलती रहे। 

प्रधान सम्पादक, ‘भारती’ संस्कृत पत्रिका
सदस्य - संस्कृत आयोग, भारत सरकार
पूर्व अध्यक्ष, आधुनिक संस्कृत पीठ, ज.रा.राजस्थान संस्कृत विवि 
तथा राजस्थान संस्कृत अकादमी
पूर्व निदेशक-संस्कृत शिक्षा एवं भाषा विभाग, राजस्थान सरकार


सी-8, पृथ्वीराज रोड 
सी-स्कीम, जयपुर 302001
दूरभाष 0141 - 2376008

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं


राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैंहौं।।
पायेऊँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।।
स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित्त कंचनहिं कसैहौं।
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं।।

(105वां पद - विनय पत्रिका - गोस्वामी तुलसीदास कृत)